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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


स्वामीजी ने सुधारक के लिए तीन शर्ते रखी हैं। पहली यह कि देश और जाति का प्रेम उसका स्वाभाव बन गया हो, हृदय उदार हो और देशवासियों की भलाई की सच्ची इच्छा उसमें बसती हो। दूसरी यह कि अपने प्रस्तावित सुधारों पर उसको दृढ़ विश्वास हो। तीसरी यह है कि वह स्थिरचित और दृढ़ निश्चय हो। सुधार के परदे में अपना कोई काम बनाने की दृष्टि न रखता हो और अपने सिद्धान्तों के लिए बड़े-से-बड़ा कष्ट और हानि उठाने को तैयार हो, यहाँ तक कि मृत्यु का भय उसे अपने संकल्प से डिगा न सके। कहते थे कि ये तीनों योग्यताएँ जब तक हममें पूर्ण मात्रा में उत्पन्न न हो जायँ, तब तक समाज-सुधार के लिये हमारा यत्न करना बिलकुल बेकार है; पर हमारे सुधारकों में कितने हैं, जिनमें ये योग्यताएँ विद्यमान हों, फरमाते हैं–

‘क्या भारत में कभी सुधारकों की कमी रही है? क्या तुम कभी भारत का इतिहास पढ़ते हो? रामानुज कौन थे? शंकर कौन थे? नानक कौन थे? चैतन्य कौन थे? दादू कौन थे? क्या रामानुज नीची जीतियों की ओर से लापरवाह थे? क्या वह आजीवन इस बात का यत्न नहीं करते रहे कि चमारों को भी अपने संप्रदाय में सम्मिलित कर लें? क्या उन्होंने मुसलमानों को अपनी मंडली में मिलाने की कोशिश नहीं की थी? क्या गुरु नानक ने हिंदू-मुसलमान दोनों जातियों को मिलाकर एक बनाना नहीं चाहा था? इन सब महापुरुषों ने सुधार के लिए यत्न किए और उनका नाम अभी तक कायम है। अंतर इतना है कि वह लोग कटुवादी न थे। उनके मुँह से जब निकलते थे, मीठे वचन ही निकलते थे। वह कभी किसी को गाली नहीं देते थे, किसी की निंदा नहीं करते थे। निःसंदेह सामाजिक जीवन के सुधार के इन गुरुतर और महत्वपूर्ण प्रश्नों की हमने उपेक्षा की है और प्राचीनों ने जो मार्ग स्वीकार किया था, उससे विमुख हो गए हैं।

सामाजिक सुधार के समस्त प्रचलित प्रश्नों में से स्वामीजी केवल एक के विषय में सुधारकों से सहमत थे। बाल-विवाह और जनसाधारण की गृहस्थ-जीवन की अत्यधिक प्रवृत्ति को वह घृणा की दृष्टि से देखते थे, अतः रामकृष्ण मिशन की ओर से जो विद्यालय स्थापित किए गए, उनमें पढ़नेवालों के माँ-बाप को यह शर्त भी स्वीकार करनी पड़ती है कि बेटे का ब्याह  १८ साल के पहले न करेंगे। वह ब्रह्मचर्य के जबरदस्त समर्थक थे और भारतवर्ष की वर्तमान भीरूता और पतन को ब्रह्मचर्यनाशक का ही परिणाम समझते थे। आजकल के हिंदुओं के बारे में अक्सर वह तिरस्कार के स्वर में कहा करते थे कि यहाँ भिखमंगा भी यह आकांक्षा रखता है कि ब्याह कर लूँ और देश में दस-बारह गुलाम और पैदा कर दूँ।

वर्तमान शिक्षा-प्रणाली के आप कट्टर विरोधी थे। आपका मत था कि ‘शिक्षा जानकारी का नाम नहीं है, जो हमारे दिमाग में ठूँस दी जाती हैं; किन्तु शिक्षा का प्रधान उद्देश्य मनुष्य के चरित्र का उत्कर्ष, आचरण का सुधार और पुरुषार्थ तथा मनोबल विकास है...अतः हमारा लक्ष्य यह होना चाहिए कि हमारी सब प्रकार की लौकिक शिक्षा का प्रबंध हमारे हाथ में हो और उसका संचालन यथासंभव हमारी प्राचीन रीति-नीति और प्राचीन प्रणाली पर किया जाय।’

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