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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


उधर राणा अपने स्वामिभक्त घोड़े चेतक पर सवार अकेला एकदम चल निकला दो मुगल सरदारों ने उसे पहचान लिया और उसके पीछे घोड़े डाल दिए। अब आगे-आगे ज़ख्मी राणा बढ़ा जा रहा है, उसके पीछे-पीछे दोनों सरदार घोड़ा दबाए बढ़े आते हैं। चेतक भी अपने मालिक की तरह ज़ख्मों से चूर है। वह कितना ही जोर मारता, कितना ही जी तोड़कर कदम उठाता, पर पीछा करने वाले निकट आते जा रहे हैं। अब उनके पावों की चाप सुनाई देने लगी। अब वह पहुँच गए। राणा का तेगा साँस लेता कि यकायक उसे कोई पीछे से ललकारता है, ‘‘ओ नीले घोड़े के सवार! ओ नीले घोड़े के सवार!’ बोली और ध्वनि बिलकुल मेवाड़ी है। राणा भौंचक्का होकर पीछे देखता है, तो उसका चचेरा भाई शक्त चला आ रहा है।

शक्त प्रताप से नाराज़ होकर अकबर से जा मिला था और उस समय शाहज़ादा सलीम के साथियों में था। पर जब उसने नीले घोड़े के सवार को ज़ख्मों से चूर, बिलकुल अकेला मैदान से जाते हुए देखा, तो बिरादराना खून जोश में आ गया। पुरानी शिकायतें और मैल दिल से बिलकुल धुल गए और तुरंत पीछा करनेवालों में जा मिला और अंत में उन्हें अपने भालों से धराशायी करता हुआ राणा तक पहुँच गया।

उस समय अपने जीवन में पहली बार दोनों भाई बंधुत्व और अपने मन के सच्चे जोश से गले-गले मिले। यहाँ स्वामिभक्त चेतक ने दम तोड़ दिया। शक्त ने अपना घोड़ा भाई को नज़र किया। राणा ने जब चेतक की पीठ से जीन उतारकर उस नए घोड़े की पीठ पर रखी, तो वह फूट-फूट कर रो रहा था। उसे किसी सगे-सम्बन्धी के मर जाने का इतना दुःख न हुआ था। क्या सिकंदर का घोड़ा बस्फाला चेतक से अधिक स्वामिभक्त था? पर उसके स्वामी ने उसके नाम पर नगर बसा दिया था? राणा का वह विपत्-काल था। उसने केवल आँसू बहाकर ही संतोष किया। आज उस स्थान पर एक टूटा-फूटा चबूतरा दिखाई देता है, जो चेतक के स्वामी पर प्राण निछावर कर देने का साक्षी है।

शाहज़ादा सलीम विजय-दुदुंभी बजाता हुआ पहाड़ियों से निकला। उस समय तक बरसात का मौसम शुरू हो गया था चूँकि जलवायु के विचार से यह काल उन पहाड़ियों में बड़े कष्ट का होता है इसलिए राणा को तीन-चार महीने इतमीनान रहा, पर वसंत-काल आते ही शत्रु-सेना ने फिर धावा किया। महावत खाँ उदयपुर पर हुकूमत कर रहा था, कोका शाहबाज खाँ ने कुंभलमेर को घेर लिया। राणा और उसके साथियों ने यहाँ भी खूब वीरता दिखाई। पर किसी घर के भेदी ने, जो अकबर से मिला हुआ था, किले के भीतर कुएँ में ज़हर मिला दिया और राणा को वहाँ से निकल जाने के सिवा और कोई रास्ता न दिखाई दिया। फिर भी उसके एक सरदार ने, जिसका नाम भानु था, मरते दम तक किले को दुश्मनों से बचाए रखा। उसके वीरगति प्राप्त कर लेने के बाद इस किले पर भी अकबरी झंडा फहराने लगा।

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