लोगों की राय

कहानी संग्रह >> कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

158 पाठक हैं

स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


मिर्ज़ा ने यह खबर सुनी तो बड़ा क्रुद्ध हुआ। तुरन्त लड़ने को तैयार हो गया और अकबर को बंगाल के झमेलों में उलझा हुआ समझकर लाहौर तक दर्राता हुआ घुस आया। पर ज्यों ही सुना कि अकबर धावा मारे इधर चला आ रहा है, उसके होश उड़ गए। पहाड़ों को फाँदता, नदियों को पार करता काबुल को भागा। मानसिंह भी शाही आदेश के अनुसार पेशावर पर जा पड़ा और काबुल की ओर बढ़ना शुरू किया। अकबर भी अपनी प्रतापी सेना लिये उसके पीछे-पीछे चला।

मानसिंह निश्शंक घुसता हुआ छोटे काबुल तक जा पहुँचा और वहाँ ठहरा कि शत्रु मैदान में आये, तो लंबी मंजिलों की थकान दूर हो। मिर्ज़ा हकीम भी बड़े आगा-पीछा के बाद सेना लिये एक घाटी से निकला और उभय-पक्ष में संग्राम होने लगा। दोनों ओर के रणबाँकुरे खूब दिल तोड़कर लड़े। यद्यपि मुकाबला बहुत कड़ा था और राजपूतों को ऐसी ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर लड़ने का अभ्यास न था, पर मानसिंह ने सिपाहियों को ऐसा उभारा और ऐसे मौके-मौके से कुमक पहुँचायी कि अंत में मैदान मार लिया। दुश्मन भेड़ों की तरह भागे। राजपूत के अरमान दिल के दिल ही में रह गए। पर दूसरे दिन सूरज भी न निकलने पाया था कि मिर्ज़ा का मामू फ़रीदू फिर फौज लेकर आ पहुँचा। मानसिंह ने भी अपनी सेना उसके सामने ले जाकर खड़ी की और चटपट खून की प्यासी तलवारें म्यानों से निकलीं, तोपों ने गोले दागे और रेलपेल होने लगी। दो घंटे तक तलवारें कड़कती रहीं। अंत को शत्रु पीछे हटा और मानसिंह विजय दुंदुभी बजाता हुआ क़ाबुल में दाखिल हुआ।

पर धन्य है कि अकबर की दयालुता और उदारता को, कि जो देश इतने रक्तपात के बाद जीता गया, उस पर कब्जा न जमाया; बल्कि मिर्ज़ा का अपराध क्षमा कर दिया और उसका देश उसको लौटा दिया। पेशावर और सीमांत-प्रदेश का शासन-भार मानसिंह को सौंपा और राजा ने बड़ी बुद्धिमानी तथा गंभीरता से इस कर्त्तव्य का पालन किया। उस देश का चप्पा-चप्पा उपद्रव-उत्पात का अखाड़ा हो रहा था। मानसिंह ने अपने नीति-कौशल और दृढ़ता से बड़े-बड़े फसादियों की रगें ढीली कर दीं। इसके साथ ही उनके सौजन्य ने भले आदमियों का मन जीत लिया। दल-के-दल लोग सलाम को हाज़िर होने लगे। फिर भी वह प्रजा को अधिक समय तक संतुष्ट न रख सका। उसके सिपाही आखिर राजपूत थे। अफ़ग़ानों के अत्याचार याद करते, तो बेअख्तियार माथे पर बल पड़ जाता। इस भाव से प्रेरित होकर प्रजा को सताते। अतः इसकी शिकायतें अकबर के दरबार में पहुँचीं। राजा बिहार भेज दिए गए।

बंगाल अकबर के साम्राज्य का वह नाजुक भाग था, जहाँ फसाद का मवाद इकट्ठा होकर पका करता था। पठानों ने अपने तीन सौ साल के शासन में इस देश पर अच्छी तरह अधिकार जमा लिया था। बहुतेरे वहीं आबाद हो गए थे, और यद्यपि अकबर ने कई बार उनका नशा हिरन कर दिया था, फिर भी कुछ ऐसे सिर बाक़ी थे, जिनमें राज्य की हवा समायी हुई थी और वह समय-समय पर उपद्रव खड़ा किया करते थे। वहाँ के हिन्दू राजाओं ने भी उनसे प्रेम का नाता जोड़ रखा था और आड़े समय पर काम आया करते थे।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai