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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


पर राजा सम्भवतः उन संपूर्ण सुखों का उपभोग कर चुका था, जो विधाता ने उसके भाग्य लेख में लिख रखे थे। इन महाशोकों के दो ही साल बाद उसके हृदय पर ऐसा घाव बैठा कि उबर न सका।

मेवाड़ का राणा अभी तक अकबरी दरबार में हाजिरी लगानेवालों की श्रेणी में न आया था और अकबर के दिल में लगी हुई थी कि उसे अधीनता का जुआ पहनाए। अभी जितनी सेनाएँ इस मुहिम पर गयी थीं, सब विफल लौटी थीं। अबकी बार बहुत बड़े पैमाने पर तैयारियाँ की गईं। शाहज़ादा सलीम सेनापति बनाए गए और राजा मानसिंह उनके सलाहकार बने। होनहार राजकुमार जगतसिंह बंगाल में बाप का उत्तराधिकारी हुआ। खुश-खुश पंजाब से आगरे आया और सफ़र का सामान करने में लगा था कि अचानक दुनिया से ही उठ गया। बड़ा ही सुशील जवान था। कछवाहों के घर-घर कुहराम मच गया। मानसिंह को यह खबर मिली, तो उसकी आँखों का जगत सूना हो गया। दो बेटों के घाव अभी भरने न पाए थे कि यह गहरा घाव और बैठा। हाय! जवान और होनहार बेटे की मौत का सदमा कोई उसके दिल से पूछे। अकबर को भी जगतसिंह की मृत्यु का बड़ा दुःख हुआ, उससे बहुत स्नेह रखता था। उसके बेटे मानसिंह को बंगाल भेजा, पर वह अभी अनुभवहीन लड़का था। पठानों से हार खायी और सारे बंगाल में बागियों ने स्वाधीनता का झंडा फहरा दिया।

इधर शाहज़ादा का मन भी राणा की मुहिम से उचाट हुआ। भोग-विलास का भक्त था, पहाड़ों से सिर टकराना पसंद न आया। बिना बादशाह की इजाज़त के इलाहाबाद को लौट पड़ा। मानसिंह बंगाल को चला कि विप्लव की आग को उपद्रवियों के रक्त से बुझाए। मगर अफसोस! बुढ़ापे में बदनामी का धब्बा लगा अकबर को शक हुआ कि सलीम राजा के इशारे ही से लौटा है, यद्यपि यह संदेश निराधार था। क्योंकि शाहज़ादे का मन पहले से ही उसकी ओर से सशंक और कलुषित हो रहा था। परन्तु मानसिंह की साहस-वीरता-भरी कार्यावली ने शीघ्र ही इस शंका को दूर कर दिया। कुछ ही महीनों में बंगाल ने अकबर के सामने सिर झुका दिया और सन् १६॰४ ई० में अकबर की गुण-ग्राहकता ने उसे शाहजादा खुसरों के शिक्षक-पद पर नियुक्त करके हल्फ़हज़ारी मनसब–छः हजार सवारों के नायकत्व–से सम्मानित किया। अब तक यह गौरव किसी और अधिकारी को प्राप्त न हुआ था। पर राजा टोडरमल के सिवा दूसरा कौन था, जो स्वामिभक्ति और उसके लिए जान हथेली पर लिये रहने में उसकी बराबरी कर सकता? इस पर राजा की विशेषता यह कि वह स्वयं भी एक सुविख्यात सुसम्मानित कुल का दीपक था, जिसके साथ २॰ हजार योद्धा हरदम पसीने की जगह खून बहाने को तैयार रहते थे। पर हा, हंत! सहज वामविधि से उसका यह सम्मान और उत्कर्ष न देखा गया। सन् १६॰५ ई० में अकबर ने इस नश्वर चोले का त्याग किया और उसी दिन से मानसिंह का गौरव-सूर्य भी अस्ताचल की ओर अभिमुख हुआ। तथापि जहाँगीर के राज्यकाल में भी उसने ९ बरस तक इज्जत-आबरू के साथ निबाह दिया। उसकी सुलझी हुई बुद्धि और व्यवहार-कुशलता की सराहना करनी चाहिए कि जैसा समय देखता था, वैसा करता था और जहाँगीर की उदारता को भी धन्य है कि यद्यपि मानसिंह को खुसरो की ओर से उठाए जानेवाले बखेड़ों का मूल कारण समझता था पर उसका पद और अधिकारी सब ज्यों-का-त्यों रखा। खानखाना और मिर्ज़ा समय के संकेत को समझने की बुद्धि न रखते थे। अतः अकबर के बाद जब तक जिये, जीवन्मृत रहे। दुर्दिन कष्ट झेलते रहे।

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