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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502

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महापुरुषों की जीवनियाँ



डॉ. सर रामकृष्ण भांडारकर

डाक्टर भांडारकर का जीवन चरित्र उन लोगों के लिए विशेष रूप से शिक्षाप्रद है, जिनका सम्बन्ध शिक्षा विभाग से है। उनके जीवन से हमको सबसे बड़ी शिक्षा यह मिलती है कि दृढ़-संकल्प और धुन का पूरा मनुष्य किसी भी विभाग में क्यों न हो, मान और यश के ऊँचे से ऊँचे सोपान पर चढ़ सकता है। डॉक्टर भांडारकर में मानसिक गुणों के साथ अध्यवसाय और श्रमशीलता का ऐसा संयोग हो गया था, जो बहुत कम देखने में आता है, और जो कभी विफल नहीं रह सकता।
इतिहास विषयक खोज और अनुसंधान में कोई भारतीय विद्वान आपकी बराबरी नहीं कर सकता। संस्कृत साहित्य और व्याकरण के आप ऐसे प्रकांड पंडित थे कि यूरोप, अमरीका के बड़े-बड़े भाषाशास्त्री आपके सामने श्रद्धा से सिर झुकाते थे। प्राकृत भाषाओं का अब देश में नाम भी बाक़ी नहीं। पाली, मागधी भाषाओं को समझना तो दूर रहा, इनके अक्षर बाँचने वाले भी कठिनाई से मिलेंगे। यूरोपीय विद्वानों ने इधर ध्यान न दिया होता, तो ये भाषाएँ अब तक नामशेष कर चुकी होतीं। भांडारकर प्राकृत भाषाओं के सर्वमान्य विद्वान ही न थे, आपने उनमें कितनी ही खोजें भी की थीं। इतिहास, भाषा-विज्ञान और पुरातत्त्व की प्रत्येक शाखा पर डाक्टर भांडारकर को पूरा अधिकार प्राप्त था। जर्मनी के सुप्रसिद्ध विश्वविद्यालय ने आपको ‘डॉक्टर’ की उपाधि से सम्मानित किया था। सरकार ने भी के.सी.एस.आई. और ‘सर’ की उपाधियाँ प्रदान कर आपके पांडित्य का समादर किया।

डॉक्टर भांडारकर के पिता एक छोटी तनख्वाह पाने वाले क्लर्क थे और इतनी सामर्थ्य न थी कि अपने लड़कों को अँगरेजी पढ़ने के लिए किसी शहर में भेज सकें। संयोगवश १८४७ ई० में उनकी बदली रत्नागिरी को हुई। यहाँ एक अँगरेजी स्कूल खुला हुआ था। बालक रामकृष्ण ने इसी स्कूल में अँगरेजी की पढ़ाई आरम्भ की और छः साल में उसे समाप्त कर एलफ़िन्स्टन कालेज बम्बई में भरती होने का हठ किया। बाप ने पहले तो रोकना चाहा, क्योंकि उनकी आमदनी इतनी न थी कि कालेज की पढ़ाई का खर्च उठा सकते, पर लड़के को पढ़ने के लिए बेचैन देखा तो तैयार हो गए। इस समय तक बम्बई विश्वविद्यालय की स्थापना न हुई थी, और उपाधियाँ भी न दी जाती थीं। मिस्टर दादाभाई नौरोजी उस समय उक्त कालेज में प्रोफ़ेसर थे। रामकृष्ण ने अपनी कुसाग्र बुद्धि और परिश्रम से थोड़े ही दिन में विद्यार्थी मंडल में विशिष्ट स्थान प्राप्त कर लिया और पढ़ाई समाप्त होने के बाद उसी कालेज में प्रोफेसर हो गए। उसी समय आपको संस्कृत पढ़ने का शौक पैदा हुआ और अवकाश का समय उसमें लगाने लगे।

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