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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502

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महापुरुषों की जीवनियाँ


‘(डाक्टर) सर भांडारकर ने विविध बाधाओं के रहते हुए भी अपने बर्तावों में कभी लगाव नहीं रखा। आपने सदा सत्य और न्याय का पक्ष लिया, पर सत्य पर मृदु मधुर शब्दों की चाशनी चढ़ाकर असत्यप्रिय जनों के अनुरंजन का यत्न नहीं किया। आप ब्रह्मसमाज के अनुयायी हैं और जात-पांत, छूत-छात के विभेद को राष्ट्रीयता का विरोधी और विघातक मानते हैं। भगवद्गीता और उपनिषद आपके जीवन की पथप्रदर्शक ज्योतियाँ हैं। यही आपके आध्यात्मिक समाधान और चित्त शुद्धि के साधन हैं। मूर्तिपूजा का कोई प्रमाण नहीं मिलता। बहुत खोज के बाद आपने यह निष्कर्ष निकाला है कि हिन्दुओं ने यह प्रथा जैन और बौद्ध संप्रदायों से ली है। जैन और बौद्ध यद्यपि सगुण ईश्वर को नहीं मानते, पर विद्वज्जनों और सन्त-महात्माओं के देहावसान पर स्मारक रूप में उनकी प्रतिमा स्थापित किया करते थे। हिन्दुओं ने उन्हीं से यह रीति ली और उसी ने अब प्रतिमा-पूजन का रूप ग्रहण कर लिया है। फिर भी बहुत से शिक्षित हिन्दू मूर्तिपूजा पर ऐसे लट्टू हैं और उस पर उनका ऐसा दृढ़ विश्वास है, मानो यही हिन्दू धर्म का प्राण हो। सामाजिक विषयों में आप सुधारवादी हैं और व्यवहारतः इसका प्रमाण दे चुके हैं। मई सन् १८९१ ई० में आपने अपनी विधवा लड़की का पुनर्विवाह कर अपने नैतिक साहस का परिचय दिया, जो अपने देश के सुधारवादियों में एक दुर्लभ गुण है। जिस जाति में ऐसी महान् आत्माएँ जन्म लेती रहें, उसका भविष्य उज्जवल है, इसमें संदेह नहीं किया जा सकता।’

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