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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502

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महापुरुषों की जीवनियाँ


मौलाना की सभी रचनाएँ लोकप्रिय हुईं और इतनी हुईं कि ‘सर्वाधिकार संरक्षित होने पर भी कितने ही छापाखानों ने ‘शहीदे वफ़ा’, ‘मलिकुल अजीज वर्जना’, ‘मंसूर मोहना’, ‘दुर्गेशनंदिनी, ‘दिलचस्प’, ‘दिलकश’, ‘फिरदौसे बरीं’ ‘फ़्लोरा फ़्लोरंडा’ बार-बार छापकर लाभ उठाया। उन्होंने इतने ही पर सन्तोष नहीं किया, ‘हुस्न का डाकू’ और ‘दरबारे हरामपूर’ को बदलकर, बिगाड़कर, आकार और मूल्य घटाकर, घटिया काग़ज़ पर छपवाकर लोगों को धोखा दिया और नफ़ा कमाया। यों तो मौलाना की सभी रचनाएँ लोकप्रिय हुई, पर आरम्भ के उपन्यासों में ‘मलिकुल अजीज वर्जना’, ‘मंसूर मोहना’, ‘दुर्गेशनंदनी’, और ‘शहीदे वफ़ा’ को सर्वाधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई और अन्तिम रचनाओं में ‘हुस्न का डाकू’, ‘शौक़ीन मलका’, ‘ज्याए हक़’ और ‘दरबारे हरामपूर’ बेहद पसन्द किए गए।

मौलाना को साहित्यसेवा का इतना उत्साह था कि आज एक भी आदमी उनकी बराबरी करनेवाला नहीं दिखाई देता। ७० साल की उम्र हुई, ५५ बरस तक उर्दू भाषा की सेवा में संलग्न रहे। ‘अवध अखबार’ ‘सहीफ़ए नामी’ और ‘हमदर्द’ में काम किया, ‘महशर’, ‘मुहज्ज़ब’ ‘दिलगुदाज़’, ‘इत्तेहाद’ ‘परदए असमत’, अलइरफ़ान’- इन सब मासिकों में लेख लिखे। इनमें से ‘दिल गुदाज़’ को ४६ बरस तक चलाया। इसके बाद उनकी रचनाओं की ओर देखिए, तो उनकी गिनती १०० पुस्तकों से ऊपर है। ‘दिलगुदाज़’ के कितने ही लेख, इतिहास के कई अध्याय और उपन्यासों के कुछ परिच्छेद पाठ्यक्रम में सम्मिलित हैं। कुछ उपन्यासों का अनुवाद दूसरी भाषाओं में भी हुआ है।

शेष वय में मौलाना का झुकाव अध्यात्म की ओर हुआ और उसका आरम्भ पुराने इस्लामी सन्तों की जीवनी से हुआ। सवानेह उम्री ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती, सवानेह अबूबकर शिबली और उसी प्रकार की अन्य पुस्तकें लिखीं। पक्के हनफ़ी सूफ़ी और रोज़ा नमाज़ के पाबंद हो गए। नमाज़ तो एक ही नियम से पढ़ते रहे। जो धर्मभीरुता अन्तिम काल में उत्पन्न हो गई थी, उसका दरवाजा बहुत ऊँचा था। चालीस-पचास बरस की उम्र तक तुर्की टोपी पहनी और फ्रेंच दाढ़ी रखी, ख़िजाब भी लगाते रहे, पर इस समय उनका हुलिया और ही था। चौगिया (चौगोशिया) टोपी, लम्बी सफेद दाढ़ी, भरा हुआ बदन, मँझोला क़द, गोल तेजयुक्त मुखमंडल, जबान पर इसलाम इतिहास की चर्चा थी। बातों-बातों में खुदा और रसूल की चर्चा का पहलू निकाल लेते थे।

अन्तिम काल में उनका आना-जाना बस घर से झँवाई-टोले तक रह गया था। पर यह असंभव था कि वह आवश्यकतावश हमारी ओर से निकले और हमसे न मिलें और अपने दो चार मिनट खर्च न कर दें। साल भर का अरसा हुआ, जब मौलाना कुछ बीमार हुए और स्वप्न में देखा कि उनके कुछ परलोकगत पूर्वपुरुष उनसे कह रहे हैं कि अब तुम चले आओ। मौलाना ने यह सपना लोगों को सुनाया और कहा कि अब आशा नहीं कि हम इस बीमारी से उठेंगे। मित्रों ने कहा कि आप घबराएँ नहीं, हम दुआ करेंगे और आप अच्छे हो जायँगे। संयोग से ऐसा ही हुआ। मौलाना अच्छे हो गए और ऐसे अच्छे हुए कि अपना काम अच्छी तरह करने लगे।

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