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नाटक-एकाँकी >> करबला (नाटक)

करबला (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :309
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8508

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अमर कथा शिल्पी मुशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांचक विवरण लिए हुए एक ऐतिहासित नाटक है।

तीसरा अंक

पहला दृश्य

[दोपहर का समय। रेगिस्तान में हुसैन के काफ़िले का पड़ाव। बगूले उड़ रहे है। हुसैन असगर को गोद में लिए अपने खेमे के द्वार पर खड़े हैं।]

हुसैन– (मन में) उफ्, यह गर्मी! निगाहें जलती हैं। पत्थर की चट्टानों से चिनगारियां निकल रही हैं। झीलें, कुएं सब सूखे पड़े हुए हैं, गोया उन्हें गर्मी ने जला दिया हो। हवा से बदन झूलसा जाता है। बच्चों के चेहरे कैसे संवला गए हैं। यह सफेदी, यह रेगिस्तान, इसकी कहीं हद भी है या नहीं। जिन लोगों ने प्यास के मारे हौक-हौककर पानी पी लिया है, उनके कलेजे में दर्द हो रहा है। अब तक कूफ़ा से कोई कासिद नहीं आया। खुदा जाने मुसलिम का क्या हाल हुआ। करीने से ऐसा मालूम होता है कि ईराकवालों ने उनसे दग़ा की, और उनको शहीद कर दिया, वरना यह खामोशी क्यों? अगर वह जन्नत को सिधारे हैं,

तो मेरे लिए भी दूसरा रास्ता नहीं हैं। शहादत मेरा इंतजार कर रही है। कोई मुझसे मिलने आ रहा हैं।

[फर्जूक का प्रवेश]

फर०– अस्सलामअलेक या हज़रत हुसैन, मैंने बहुत चाहा कि मक्के ही में आपकी जियारत करूं, लेकिन अफसोस, मेरी कोशिश बेकार हुई।

हुसैन– अगर ईराक से आए हो, तो वहां की क्या खबर हैं?

फर०– या हज़रत! वहां की खबरें वे ही हैं, जो आपको मालूम हैं। लोगों के दिल आपके साथ हैं, क्योंकि आप हक पर हैं और, उनकी तलवारें यजीद के साथ है, क्योंकि उसके पास दौलत है।

हुसैन– और मेरे भाई मुसलिम की भी कुछ खबर लाए हो?

फर०– उनकी रूह जन्नत में है, और सिर किले की दीवार पर।

मातम है कई दिन से मुसलमानों के घर में;

खंदक में है लाश उनकी व सर किले की दर में।

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