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नाटक-एकाँकी >> करबला (नाटक)

करबला (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :309
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8508

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अमर कथा शिल्पी मुशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांचक विवरण लिए हुए एक ऐतिहासित नाटक है।

छठा दृश्य

[कर्बला का मैदान। एक तरफ केरात-नदीं लहरें मार रही है। हुसैन मैदान में खड़े हैं। अब्बास और अली अकबर भी उनके साथ हैं।]

अली अकबर– दरिया के किनारे खेमे लगाए जाए, वहां ठंडी हवा आएगी।

अब्बास– बड़ी फ़िजा की जगह है।

हुसैन– (आंखों में आंसू भरे हुए) भाई, लहराते हुए दरिया को देखकर खुद-बखुद बाबा बहुत ग़मग़ीन थे। उनकी आंखों से आंसू न थमते थे। न खाना खाते थे, न सोते थे। मैंने पूछा– ‘‘या हजरत, आप क्यों इस क़दर बेताब हैं?’’ मुझे छाती से लिपटाकर बोले– ‘‘बेटा, तू मेरे बाद एक दिन यहां आएगा, उस दिन तुझे मेरे रोने का सबब मालूम होगा। आज मुझे उनकी वह बात याद आती है। उनका रोना बेसबब नहीं था। इसी जगह हमारे खून बहाए जायेंगे, इसी जगह हमारी बहनें और बेटियां, कैद की जाएंगी, इसी जगह हमारे आदमी कत्ल होंगे, और हम जिल्लत उठाएंगे। खुदा की क़सम, इसी जगह मेरी गर्दन की रगें कटेंगी और मेरी दाढ़ी खून में रंगी जायेगी। इसी जगह का वादा मेरे नाना से अल्लाहताला ने किया है, और उसका वादा तक़दीर की तहरीर है।

[गाते हैं।]

देगा जगह कोई मुश्ते गुबार को,
बैठेगा कौन लेके किसी बेकरार को।
दर सैकड़ों कफ़स में हैं, फिर भी असीर हूं,
कैसा मकां मिला है, गरीबे-दबार को।
दिल-सौज कौन है, जो न जाने के जुल्म से,
देखे मेरी बुझी हुई शमए-मज़ार को।
आखिर है दास्तान शबे-ग़म कि बाग मर्ग,
करता है बंद दीदए-अख्तर शुमार को।
आवाज ए-चमन की उम्मीद और मेरे बाद–
चुप कर दिया फ़लक ने ज़बाने-बहार को।
राहत कहां नसीब कि सहराए-गम को धूप,
देती है आग हर शजरे शायादार को।
खुद आसमां को नक्शे-वफा से है दुश्मनी,
तुम क्यों मिटा रहे हो निशाने-मजार को।
इस हादिसे से कबूल कि मैं फिर कुछ न कह सकूं,
सुन लो बयान हाले-दिले बेकरार को।

[जैनब खेमे से बाहर निकल आती है।]

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