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नाटक-एकाँकी >> करबला (नाटक)

करबला (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :309
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8508

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अमर कथा शिल्पी मुशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांचक विवरण लिए हुए एक ऐतिहासित नाटक है।


नसीमा– नहीं वहब, अगर तुम दिल से भी बैयत कबूल करनी चाहो, तो मैं खुश न हूंगी। में भी इंसान हूं वहब, निरी भेड़ नहीं हूं। मेरे दिल के जज़बात मुर्दा नहीं हुए है। मैं तुम्हें इन जालिमों के सामने सिर न झुकाने दूंगी। जानती हूं जागरी जब्त हो जायेगी,. वजीफ़ा बंद हो जायेगा, जलावतन कर दिए जायेंगे। मैं तुम्हारे साथ ये सारी आफ़तें झेल लूंगी।

वहब– और अगर जालिमों ने इतने ही पर बस न की?

नसीमा– आह वहब, अगर यह होना है, तो खुदा के लिए इसी वक्त यहां से चले चलो। किसी सामान की जरूरत नहीं। इसी तरह, इन्हीं पांवों चलो। यहां से दूर किसी दरख्त के साए में बैठकर दिन काट दूंगी, पर इन जालिमों की खुशामद न करूंगी।

बहब– (नसीमा को गले लगाकर) नसीमा, मेरी जान तुझ पर फ़िदा हो। जालिमों की सख्ती मेरे हक में अकसीर हो गई। अब उस जुल्म से मुझे कोई शिकायत नहीं। हमारे जिस्म बारहा गले मिल चुके है, आज हमारी रूहें गले मिली हैं, मगर इस वक्त नाके बंद होंगे।

नसीमा– जालिमों के नौकर बहुत ईमानदार नहीं होते। मैं उसे 50 दीनार दूंगी, और वहीं हमें अपने घोड़े पर सवार कराके शहर पहुंचा देगा। वहब– सोच लो, बागियों के साथ किसी की रू-रियासत नहीं हो सकती उनकी एक ही सजा है, और वह है कत्ल।

नसीमा– वहब, इंसान के दिल की क़ैफियत हमेशा एक-सी-नहीं रहती। केंचुए से डरने वाला आदमी सांप की गर्दन पकड़ लेता है। ऐश के वंदे गुदड़ियों में मस्त हो जाते हैं। मैंने समझा था, जो खतरा है, घोंसलों से बाहर निकलने में है, अंदर बैठे रहने में आराम-ही-आराम है। पर अब मालूम हुआ कि सैयाद के हाथ घोंसले के बाहर निकलने में है, अंदर बैठे रहने में आराम-ही-आराम है। पर अब मालूम हुआ कि सैयाद के हाथ घोंसले के अंदर भी पहुंच जाते हैं। हमारी नजात जमाना से भागने में नहीं, उसका मुकाबला करने में है। तुम्हारी सोहबत ने, मुल्क की हालत ने, क़ौम के रईसों और अमीरों की पस्ती ने मुझ पर रोशन कर दिया कि यहां इतमीनान के मानी ईमान-फ़रोशी और आफ़ियत के मानी हक़कुशी हैं। ईमान और हक़ की हिफ़ाजत असली आफ़ियत और इतमीनान है। शायद ने खूब कहा है–

लुफ्त मरने में है बाक़ी न मज़ा जीने में,
कुछ अगर है, तो यही खूने-जिगर पीने में।


वहब– मुआफ करो नसीमा, मैंने तुम्हें पहचानने में गलती की। चलो, सफ़र का सामान करें।

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