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नाटक-एकाँकी >> करबला (नाटक) करबला (नाटक)प्रेमचन्द
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अमर कथा शिल्पी मुशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांचक विवरण लिए हुए एक ऐतिहासित नाटक है।
शिमर– अस्सलामअलेक। साद, किस फिक्र में बैठे हो, जियाद को तुमने क्या जवाब दिया?
साद– दिल हुसैन के मुकाबले पर राजी नहीं होना।
शिमर– सरवत और दौलत हासिल करने का ऐसा सुनहरा मौका फिर हाथ न आएगा। ऐसे मौके जिदंगी में बार-बार नहीं आते।
साद– नजात कैसे होगी?
शिमर– खुदा रहीम है, करीम है, उसकी जात से कुछ बईद नहीं। गुनाहों को माफ न करता, तो रहीम क्यों कहलाता? हम गुनाह न करें, तो वह माफ क्या करेगा?
साद– खुदा ऐसे बड़े गुनाह को माफ न करेगा।
शिमर– अगर खुदा की जात से यह एतकाद उठ जाये, तो मैं आज मुसलमान न रहूं। यह रोजा और नजाम या ज़कात और खैरात, किस मर्ज़ की दवा है, अगर हमारे गुनाहों को भी माफ़ न करा सके।
साद– रसूले-खुदा को क्या मुंह दिखाऊंगा?
शिमर– साद, तुम समझते हो, हम अपनी मर्जी के मुख्तार हैं, यह यक़ीदा बातिल है। सब-के-सब हुक्म के बंदे हैं। उसकी मर्जी के बगैर हम अपनी उंगली को भी नहीं हिला सकते। सबाब और अज़ाब का यहां सवाल ही नहीं रहता। अक्लमंद आदमी उधार के लिये नकद को नहीं छोड़ता। ताखीर मत करो, वरना फिर हाथ मलोगे।
[शिमर चला जाता है।]
साद– (दिल में) शिमर ने बहुत माकूल बातें कहीं। बेशक खुदा अपने बंदों के गुनाहों को माफ करेगा, वरना हिसाब के दिन दोज़ख में गुनाहगारों के खड़े होने की जगह भी न मिलेगी। मैं जाहिद खुदा की यही मरजी है कि हुसैन के मुकाबले पर मैं जाऊं, वरना जियाद यह तजवीज़ ही क्यों करता। जब खुदा की यही मर्जी है, तो मुझे सिर झुकाने के सिवा और क्या चारा है। अब जो होना हो, सो हो– आग में कूद पडा, जलूं या बचूं।
[गुलाम को बुलाकर जियाद के नाम अपनी मंजूरी का खत लिखता है।]
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