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नाटक-एकाँकी >> करबला (नाटक)

करबला (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :309
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8508

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अमर कथा शिल्पी मुशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांचक विवरण लिए हुए एक ऐतिहासित नाटक है।


शिमर– यह उनकी नई चाल है। कमाल पाक की कसम, आप उनकी दरख्वास्त मानकर पछताएंगे। आपको फौज में फिर आना नसीब न होगा।

साद– क्या तुम्हारा यह मतलब है कि हुसैन मुझसे दग़ा करेगे? अली का बेटा दग़ा नहीं कर सकता।

शिमर– यह मेरा मतलब नहीं। यहां से बच निकलने की कोई तज़वीज पेश करना चाहते होंगे। उनकी जबान में जादू का असर है, ऐसा न हो कि वह आपको चकमा दे। क्या हर्ज है, अगर मैं भी आपके साथ चलूं?

साद– मैं समझता हूं कि मैं अपने दीन और दुनिया की हिफ़ाजत खुद कर सकता हूं। मुझे तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं।

शिमर– आपको अख्तियार है। कम-से-कम मेरी इतनी सलाह तो मान ही लीजिएगा कि अपने थोड़े-से चुने हुए आदमी लेते जाइएगा।

साद– यह मेरा जाती मामला है, जैसा मुनासिब समझूंगा, करूंगा।

[कासिद को बुलाकर खत का जवाब देता है]

शिमर– रात का वक्त लिखा है न?

साद– इतना तो तुम्हें खुद समझ लेना चाहिए था।

शिमर– (जाने के लिये खड़ा होकर) मेरी बात का जरूर ख़याल रखिएगा। (दिल में) इसके अंदाज से मालूम होता है कि हुसैन की बातों में आ जायेगा। जियाद के पास खुद जाकर यह किस्सा कहूं।

साद– (दिल में) खुदा तुझसे समझे जालिम? तू जियाद से भी दो अंगुल बढ़ा हुआ है। शायद मेरा यह कयात गलत नहीं है कि तू ही जियाद को यहां के हालात की इत्तिला देता है। हुसैन दग़ा करेंगे! हुसैन दग़ा करने वालों में नहीं, दग़ा का शिकार होने वालों में है।

[उठकर अंदर चला जाता है]

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