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नाटक-एकाँकी >> करबला (नाटक) करबला (नाटक)प्रेमचन्द
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अमर कथा शिल्पी मुशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांचक विवरण लिए हुए एक ऐतिहासित नाटक है।
पांचवां दृश्य
[८ बजे रात का समय। जियाद की खास बैठक। शिमर और जियाद बातें कर रहे हैं।]
जियाद– क्या कहते हो। मैंने सख्त ताकीद कर दी थी कि दरिया पर हुसैन का कोई आदमी न आने पाए।
शिमर– बजा है। मगर मैं तो हुसैन के आदमियों को दरिया से पानी लाते बराबर देखता रहा हूं, और शायद मेरा, दरिया की हिफ़ाजत के लिए अपनी जिम्मेदारी पर, हुक्म जारी करना साद को बुरा लगा।
जियाद– साद पर मुझे इतमीनान है। मुमकिन है, उसे लोगों को प्यासों मरते देखकर रहम आ गया हो, और हक़ तो यह है कि शायद मैं भी मौके पर इतना बेरहम नहीं हो सकता। इससे यह नहीं साबित होता कि साद की नीयत डाँवाडोल हो रही है।
शिमर– मैं साद की शिकायत करने के लिए आपकी खिदमत में नहीं हाजिर हुआ हूँ, सिर्फ वहां ही हालत अर्ज करनी थी। हुसैन ने आज साद को मुलाकात करने को भी तो बुलाया है। देखिए, क्या बातें होती हैं।
जियाद– क्या? साद हुसैन से मुलाकातें भी कर रहा है? तुम साबित कर सकते हो?
शिमर– हूजूर, मेरे सबूत की जरूरत नहीं। उनका कासिद अभी आता ही होगा।
जियाद– क्या कई बार मुलाकातें हुई हैं?
शिमर– आज की मुलाकात का भी तो मुझे इल्म है, पर शायद और भी मुलाकातें तनहाई में हुई हैं।
जियाद– कोई और आदमी साथ नहीं रहा?
शिमर– मैंने खुद साथ चलना चाहा था, पर मेरी अर्ज कबूल न हुई।
जियाद– कलाम पाक की कसम मैं इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता। मैंने उसे हुसैन से जंग करने को भेजा है, मसालहत करने के लिए नहीं। मैं उससे इसका जवाब तलब करूंगा।
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