लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> करबला (नाटक)

करबला (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :309
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8508

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

36 पाठक हैं

अमर कथा शिल्पी मुशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांचक विवरण लिए हुए एक ऐतिहासित नाटक है।


सफवान– हम सिपाहियों को माल, दौलत, जागीर और रुतवा चाहिए, हमें दीन और आक़बत से क्या काम? संभल जाओ।

[दोनों पहलवानों में चोटें चलने लगती हैं।]

अब्बास– वह मारा। सफवान का सीना टूट गया, जमीन पर तड़पने लगा।

हबीब– सफ़वान के तीनों भाई दौड़े चले आते हैं।

अब्बास– वाह मेरे शेर! एक तलवार से लिया, दूसरा भी गिरा, और तीसरा भागा जाता है।

हबीब– या खुदा, खैर कर, हुर का घोड़ा गिर गया।

हुसैन– फौरन एक घोड़ा भेजो।

[एक आदमी हुर के पास घोड़ा लेकर जाता है।]

अब्बास– यह पीरा नासाली और यह दिलेरी! ऐसा बहादुर आज तक नज़र से नहीं गुजरा। तलवार बिजली की तरह कौंध रही है।

हुसैन– देखो, दुश्मन का लश्कर कैसा पीछे हटा जाता है। मरनेवालों के सामने खड़ा होना आसान नहीं है। दिलेरी को इंतहा है।

अब्बास– अफ़सोस, अब हाथ नहीं उठते। तीरों से सारा बदल चलनी हो गया।

शिमर– तीरों की बारिश करो, मार लो। हैफ़ है तुम पर कि एक आदमी से इतने खायाफ़ हो। वह गिरा, काट लो सिर और हुसैन की फ़ौज में फेंक दो।

[कई आदमी हुर के सिर को काटने को चलते हैं, कि हुसैन मैदान की तरफ दौडते हैं।]

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book