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नाटक-एकाँकी >> करबला (नाटक)

करबला (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :309
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8508

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अमर कथा शिल्पी मुशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांचक विवरण लिए हुए एक ऐतिहासित नाटक है।

चौथा दृश्य

[जैनब अपने खेमे में बैठी हुई है। शाम का वक्त]

जैनब– (स्वगत) अब्बास और अली अकबर के सिवा अब भैया के कोई रकीफ़ बाकी नहीं रहे। सब लोग उन पर निसार हो गए। हाय, कासिम-सा जवान, मुसलिम के बेटे, अब्बास के भाई, भैया इमाम हसन के चारों बेटे, सब दाग़ दिए गए। देखते-देखते हरा-भरा बाग वीरान् हो गया, गुलजार बस्ती उजड़ गई। सभी माताओं के कलेजे ठंडे हुए। बापों के दिल बाग़-बाग़ हुए। एक में ही बदनसीब नामुराद रह गई। खुदा ने मुझे भी दो बेटे दिए हैं, पर जब वे काम ही न आए, तो उनको देखकर जिगर क्या ठंडा हो। इससे तो यही बेहतर होता कि मैं बांझ ही रहती। तब यह बेवफ़ाई का दाग़ तो माथे पर न लगता। हुसैन ने इन लड़कों को अपने लड़कों की तरह समझा, लड़कों की तरह पाला, पर वे इस मुसीबत में, तारीकी में, साए की तरह साथ छोड़ देते हैं, दग़ा कर रहे हैं।

हां, यह दग़ा नहीं, तो और क्या है? आखिर भैया अपने दिल में क्या समझ रहे होंगे। कहीं यह खयाल न करते हों कि मैंने ही उन्हें मैदान जाने से मना कर दिया है। यह खयाल न पैदा हो कि मैं उनके साथ अपनी गरज निकालने के लिए जमानासाजी कर रही थी। आह! उन्हें क्योंकर अपना दिल खोलकर दिखा दूं कि वह उनके लिए कितना बेकरार है, पर अपने लड़कों पर काबू नहीं। जाओ, जैसे तुमने मेरे मुंह में कालिख लगाई है, मैं भी तुम्हें दूध न बख्शूंगी। ये इतने कम हिम्मत कैसे हो गए। जिसका नाना रण में तूफान पैदा कर देता था, जिनके बाप की ललकार सुनकर दुश्मनों के कलेजे दहल जाते थे, वे ही लड़के इतने वादे, पस्तहिम्मत हों। यह मेरी तकदीर की खराबी, और क्या! जब रण में जाना ही नहीं, तो वे हथियार सजाकर क्यों मुझे जलाते हैं। भैया को कौन-सा मुंह दिखाऊंगी, उनके सामने आंखें कैसे उठाऊंगी।

[दोनों लड़कों का प्रवेश]

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