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नाटक-एकाँकी >> करबला (नाटक) करबला (नाटक)प्रेमचन्द
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अमर कथा शिल्पी मुशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांचक विवरण लिए हुए एक ऐतिहासित नाटक है।
यह तो मैं जानती हूं कि तुम नाम करोगे, पर कमसिन बहुत हो, इसलिए समझती हूं। जाओ, तुम्हें खुदा को सौंपा।
[दोनों मैदान की तरफ जाकर लड़ते हैं, और जैनब परदे की आड़ से देखती है। शहरबानू का प्रवेश।]
शहरबानू– है-है, बहन, यह तुमने क्या सितम किया? इन नन्हें-नन्हें बच्चों को रण में झोंक दिया। अभी अली अकबर बैठा ही हुआ है, अब्बास मौजूद ही है, ऐसी क्या जल्दी पड़ी थी?
जैनब– वे किसी के रोके रुकते थे? कल ही से हथियार सजे मुंतजिर बैठे है। रात-भर तलवारें साफ की गई है और यहां आए ही किसलिए थे। जिन्दगी बाकी है, तो दोनों फिर आएंगे। मर जाने का ग़म नहीं, आखिर किस दिन काम आते। जिहद में छोटे-बड़े की तमीज़ नहीं रहती। मैं रसूल पाक को कौन मुंह दिखाती।
शहरबानू– देखो, हाय-हाय, दोनों के दुश्मनों को किस तरह घेर रखा है। कोई जाकर बेचारों को घेर भी नहीं लेता। शब्बीर भी बैठे तमाशा देख रहे हैं। यह नहीं कि किसी को भेज दें। हैं तो जरा-जरा से, पर कैसे मछलियों की तरह चमकते फिरते है! खैर अच्छा हुआ, अब्बास दौड़े जा रहे हैं।
[अब्बास का मैदान की तरफ दौड़े हुए आना।]
जैनब– (खेमे से निकलकर) अब्बास, तुम्हें रसूल पाक की कसम है, जो उन्हें लौटाने जाओ। हां, उनका दिल बढ़ाते जाओ। क्या मुझे शहादत के सवाब में कुछ भी देने का इरादा नहीं है? भैया तो इतने खुदग़रज कभी न थे!
[दोनों भाई मारे जाते हैं। हुसैन और अब्बास उनकी लाश उठाने जाते हैं, और जैनब एक आह भरकर बेहोश हो जाती है।]
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