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पाँच फूल (कहानियाँ)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :113
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8564

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प्रेमचन्द की पाँच कहानियाँ



जिहाद

बहुत पुरानी बात है। हिन्दुओं का एक काफिला अपने धर्म की रक्षा लिए पश्चिमोत्तर के पर्वत-प्रदेश से भागा चला आ रहा था। मुद्दतों से उस प्रान्त में हिन्दू और मुसलमान साथ-साथ रहते आये थे। धार्मिक द्वेष का नाम न था। पठानों के जिरगे हमेशा लड़ते रहते थे। उनकी तलवारों पर कभी जंग न लगने पाता था। बात-बात पर उनके दल संगठित हो जाते थे। शासन की कोई व्यवस्था न थी। हर एक जिरगे और कबीले की व्यवस्था अलग थी। आपस में झगड़ों को निपटाने का भी तलवार के सिवा कोई और साधन न था। जान का बदला-जान था, खून का बदला खून था इस नियम में भी हिन्दू परिवार शांति से जीवन व्यतीत करते थे। पर एक महीने से देश की हालत बदल गई है। एक मुल्ला ने जाने कहाँ से आकर अनपढ़, धर्म-शून्य पठानों में धर्म का भाव जागृत कर दिया है उसकी वाणी में कोई मोहिनी है कि बूढ़े, जवान, स्त्री-पुरुष सभी खिंचे चले आते हैं। वह शेरों की तरह गरजकर कहता है—खुदा ने तुम्हें इसलिए पैदा किया है कि दुनिया को इस्लाम की रोशनी से रोशन कर दो, दुनिया से कुफ्र का निशान मिटा दो। एक काफिर के दल को इस्लाम के उजाले से रोशन कर देने का सवाब सारी उम्र के रोजे-नमाज और जकात से कहीं ज्यादा है। जन्नत की हूरें तुम्हारी बलायें लेंगी और फरिस्ते तुम्हारे कदमों की खाक माथे पर मलेंगे, खुदा तुम्हारी पेशानी पर बोसे देगा। और सारी जनता यह आवाज सुनकर मजहब के नारों से मतवाली हो जाती है। इसी धार्मिक उत्तेजना ने कुफ्र और इस्लाम का भेद उत्पन्न कर दिया है। प्रत्येक पठान जन्नत का सुख भोगने के लिए अधीर हो उठा है। उन्हीं हिन्दुओं पर जो सदियों से शान्ति के साथ रहते थे, हमले होने लगे हैं। कहीं उनके मन्दिर ढाये जाते हैं, कहीं उनके देवताओं को गालियाँ दी जाती हैं। कहीं उन्हें जबरदस्ती इस्लाम की दीक्षा दी जाती है। हिन्दू संख्या में कम हैं, असंगठित हैं, बिखरे हुए हैं, इस नयी परिस्थिति के लिए बिलकुल तैयार नहीं। उनके हाथ-पाँव फूले हुए हैं, कितने ही तो अपनी जमा-जथा छोड़कर भाग खड़े हुए हैं, कुछ छिपे हुए इस आँधी के शान्त हो जाने का अवसर देख रहे हैं। वह काफिला भी उन्हीं भागने वालों में से था।

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