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पाँच फूल (कहानियाँ)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :113
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8564

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प्रेमचन्द की पाँच कहानियाँ


दूसरा—नहीं-नहीं, ठहरो। अगर यह इस वक्त भी इस्लाम कबूल कर ले, तो हम इसे मुआफ कर सकते हैं। क्यों धर्मदास, तुम्हें इस दगा की क्या सजा दी जाय हमने तुम्हें रात-भर का वक्त फैसला करने के लिए दिया था। मगर तुम रात ही को हमसे दगा करके भाग निकले। इस दगा की सजा तो यह है कि तुम इसी वक्त जहन्नुम पहुँचा दिये जाओ, लेकिन हम तुम्हें फिर एक मौका देते हैं। यह आखिरी मौका है। अगर तुमने अब भी इस्लाम न कबूल किया, तो तुम्हें दिन की रोशनी देखनी नसीब न होगी।

धर्मदास ने हिचकिचाते हुए कहा—जिस बात को अक्ल नहीं मानती, उसे कैसे....

पहले सवार ने आवेश में आकर कहा—मजहब को अक्ल से कोई वास्ता नहीं।

तीसरा—कुफ्र है! कुफ्र है!

पहला—उड़ा दो सिर मरदूद का, धुआँ इस पार।

दूसरा—ठहरो-ठहरो, मार डालना मुश्किल नहीं, जिला लेना मुश्किल है। तुम्हारे और साथी कहाँ हैं, धर्मदास!

धर्मदास—सब मेरे साथ ही हैं।

दूसरा—कलामे शरीफ की कसम, अगर तुम सब खुदा और उसके रसूल पर ईमान लाओ, तो कोई तुम्हें तेज निगाहों से भी देख न सकेगा।

धर्मदास—आप लोग सोचने के लिए और कुछ मौका न देंगे।

इस पर चारों सवार चिल्ला उठे—नहीं, नहीं, हम तुम्हें न जाने देंगे यह आखिरी मौका है!  

इतना कहते ही पहले सवार ने बन्दूक छतिया ली और नली धर्मदास की ओर करके बोला—बस बोलो, क्या मन्जूर है

धर्मदास सिर से पैर तक काँपकर बोला—अगर मैं इस्लाम कबूल कर लूँ तो मेरे साथियों को तो कोई तलीफ न दी जाएगी

दूसरा—हाँ, अगर तुम जमानत करो कि वे भी इस्लाम कबूल कर लेंगे।

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