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पाँच फूल (कहानियाँ)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :113
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8564

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प्रेमचन्द की पाँच कहानियाँ


कभी-कभी मेरे मन में यह इच्छा बलवती होती कि स्वच्छन्द होकर पहाड़ों की सैर करूँ; लेकिन जीविका का प्रश्न मेरी इच्छा को दबा देता। उस सूखे देश में खाने का कुछ भी ठिकाना नहीं था। वहीं के लोग एक रोटी के लिए मनुष्य की हत्या कर डालते, एक कपड़े के लिए मुरदे की लाश चीर-फाड़ कर फेंक देते, और बन्दूक के लिए सरकारी फौज पर छापा मारते हैं। इसके अतिरिक्त उन जंगली जातियों का एक-एक मनुष्य मुझे जानता था और मेरे खून का प्यासा था। यदि मैं उन्हें मिल जाता, तो जरूर मेरा नाम-निशान दुनिया से मिट जाता। न जाने कितने अफ्रीदियों और गिलजइयों को मैंने मारा था, कितनों को पकड़-पकड़कर सरकारी जेलखानों में भर दिया था, और न मालूम उनके कितने गाँवों को जलाकर खाक कर दिया था। मैं भी बहुत सतर्क रहता, और जहाँ तक होता, एक स्थान पर एक हफ्ते से अधिक कभी न रहता।

एक दिन मैं मेजर सरदार हिम्मतसिंह के घर की ओर जा रहा था। उस समय दिन के दो बजे थे। आजकल छुट्टी-सी थी; क्योंकि अभी हाल ही में कई गाँव भस्मीभूत कर दिए गए थे और जल्दी उनकी तरफ से कोई आशंका नहीं थी। हम लोग निश्चिन्त हो गप्प और हँसी-खेल में दिन गुजारते। बैठे-बैठे दिल घबरा गया था, सिर्फ मन बहलाने के लिए सरदार साहब के घर की ओर चला, किन्तु रास्ते में एक दुर्घटना हो गयी। एक बूढ़ा अफ्रीदी, जो अब भी एक हिन्दुस्तानी जवान का सिर मरोड़ देने के लिए काफी था, एक फौजी जवान से भिड़ा हुआ था। मेरे देखते-देखते उसने अपनी कमर से एक तेज छुरा निकाला और उसकी छाती में घुसेड़ दिया। उस जवान के पास एक कारतूसी बन्दूक थी, बस उसी के लिए यह सब लड़ाई थी। पलक मारते-मारते फौजी जवान का काम तमाम हो गया और बूढा बन्दूक लेकर भागा। मैं उसके पीछे दौड़ा, लेकिन दौड़ने में वह इतना तेज था कि बात-की-बात में आँखों से ओझल हो गया। मैं भी बेतहाशा उसका पीछा कर रहा था। आखिर सरहद पर पहुँचते-पहुँचते मैं उससे बीस हाथ की दूरी पर रह गया। उसने पीछे फिर कर देखा, मैं अकेला उसका पीछा कर रहा था। उसने बन्दूक का निशाना मेरी ओर साधा, मैं फौरन जमीन पर लेट गया और बन्दूक की गोली मेरे सामने के पत्थर पर लगी। उसने समझा मैं गोली का शिकार हो गया। वह धीरे-धीरे सतर्क पदों से मेरी ओर बढ़ा। मैं साँस खींचकर लेट गया। जब वह बिल्कुल मेरे पास आ गया, तो शेर की तरह उछल कर मैंने उसकी गर्दन पकड़ कर जमीन पर पटक दिया और छूरा निकाल कर मैंने उसकी छाती में घुसेड़ दिया। अफ्रीदी की जीवन लीला समाप्त हो गई। इसी समय मेरी पलटन के कई लोग भी आ पहुँचे। चारों तरफ से मेरी प्रशंसा करने लगे। अभी तक मैं अपने आपे में न था, लेकिन अब मेरी सुधबुध वापस आयी, न मालूम क्यों उस बुड्ढे को देखकर मेरा जी घबराने लगा। अभी तक न मालूम कितने ही अफ्रीदियों को मारा था, लेकिन कभी भी मेरा हृदय इतना घबराया न था। मैं जमीन पर बैठ गया, और बुड्ढे की ओर देखने लगा। पलटन के जवान भी पहुँच गये और मुझे घायल जानकर अनेक प्रकार के प्रश्न करने लगे। धीरे-धीरे मैं उठा और चुपचाप शहर की ओर चला। सिपाही मेरे पीछे-पीछे उस बुड्ढे की लाश घसीटते हुए चले। शहर के निवासियों ने मेरी जय-जयकार का ताँता बाँध दिया। मैं चुपचाप मेजर सरदार हिम्मतसिंह के घर में घुस गया।

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