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पाँच फूल (कहानियाँ)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :113
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8564

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प्रेमचन्द की पाँच कहानियाँ


कप्तान ने कठोर आँखों से देखकर कहा अभी छुटटी नहीं मिल सकती।'

‘तो मेरा इस्तीफा ले लीजिए।'

‘अभी इस्तीफा नहीं लिया जा सकता।'

‘मैं अब यहां एक क्षण नहीं रह सकता।’

‘रहना पड़ेगा। तुम लोगों को बहुत जल्द लॉम पर जाना पड़ेगा।'

‘लड़ाई छिड़ गयी! आह, तब मैं घर नहीं जाऊँगा? हम लोग कब तक यहाँ से जायँगे?'

‘बहुत जल्द दो-चार दिनों में।'

चार वर्ष और बीत गये। कैप्टन जगतसिंह का-सा योद्धा उस रेजीमेंट में नहीं है। कठिन अवस्थाओं में उसका साहस और भी उत्तेजित हो जाता है। जिस मुहिम में सबकी हिम्मतें जवाब दे जाती हैं, उसे सर करना उसी का काम है। हमले और धावे में वह सदैव सबसे आगे  रहता है, उनकी त्योरियों पर कभी बल नहीं आता, इसके साथ ही वह इतना विनम्र, इतना गम्भीर, इतना प्रसन्नचित्त है कि सारे अफसर और मातहत उसकी बड़ाई करते हैं, उसका पुनर्जीवन हो गया है। उस पर अफसरों का इतना विश्वास है कि प्रत्येक विषय में उससे परामर्श करते हैं। जिससे पूछिए, वह वीर जगतसिंह की विरुदावलि सुना देगा—कैसे जर्मनी के मैदानों के  मैगजीन में आग लगायी; कैसे अपने कप्तान को मशीनगनों की मार से निकाला, कैसे अपने एक मातहत सिपाही को कंधे पर लेकर निकल आया। ऐसा जान पड़ता है, उसे अपने प्राणों का मोह ही नहीं हो, मानो वह काल को खोजता फिरता है।

लेकिन नित्य रात्रि के समय जब जगतसिंह को अवकाश मिलता है, वह अपनी छोलदारी में अकेले बैठकर घरवालों को याद कर लिया करता है—दो-चार आँसू की बूँदे अवश्य गिरा देता है। वह प्रति मास अपने वेतन का बड़ा भाग घर भेज देता है, और कोई सप्ताह नहीं जाता कि वह माता को पत्र न लिखता हो। सबसे बड़ी चिन्ता उसे अपने पिता की है, जो आज उसी के दुष्कर्मों के कारण कारावास की यातना झेल रहे हैं। हाय! वह कौन दिन होगा जब वह उनके चरणों पर सिर रखकर अपना अपराध क्षमा करायेगा और वह उनके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देंगे।

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