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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580

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मैं रोने लगी। मुँह से एक बात न निकली। बाबू जी उस समय ऊपर कमरे में बैठे कुछ पढ़ रहे थे। यह बातें उन्होंने सुनीं, उन्हें बड़ा कष्ट हुआ। रात को जब वह घर आये तो बोले, देखा, तुमने आज अम्माँ का क्रोध! यही अत्याचार है, जिससे स्त्रियों को अपनी जिंदगी पहाड़ मालूम होने लगती है। इन बातों से हृदय में कितनी वेदना होती है, इसका जानना असम्भव है। जीवन भार हो जाता है, हृदय जर्जर हो जाता है और मनुष्य की आत्मोन्नति उसी प्रकार रुक जाती है, जैसे जल, धूप और वायु के बिना पौधे सूख जाते हैं। हमारे घरों में यह बड़ा अंधेर है। अब मैं तो उनका पुत्र ही ठहरा, उनके सामने मुँह नहीं खोल सकता। मेरे ऊपर उनका बहुत बड़ा अधिकार है। अतएव उनके विरुद्ध एक शब्द भी कहना मेरे लिये लज्जा का विषय होगा, और यही बंधन तुम्हारे लिए भी है। यदि तुमने उनकी बातें चुपचाप न सुन ली होतीं, तो मुझे बहुत ही दु:ख होता। कदाचित् मैं विष खा लेता। ऐसी दशा में दो ही बातें सम्भव हैं–या तो सदैव उनकी घुड़कियों-झिड़कियों को सहे जाओ या अपने लिए कोई दूसरा रास्ता ढूढ़ो। अब इस बात की आशा करना, कि अम्माँ के स्वभाव में कोई परिवर्तन होगा, बिलकुल असम्भव है। बोलो, तुम्हें क्या स्वीकार है?

मैंने डरते डरते कहा, आपकी जो आज्ञा हो, वह करूँ। अब कभी न पढूँ-लिखूँगी। और जो कुछ वह कहेंगी वही करूँगी। यदि वह इसी में प्रसन्न हैं तो यही सही, मुझे पढ़-लिखकर क्या करना है!

बाबू जी–पर यह मैं नहीं चाहता। अम्माँ ने आज आरम्भ किया है। अब बढ़ती ही जायँगी। मैं तुम्हें जितना ही सभ्य तथा विचार-शील बनाने की चेष्टा करूँगा, उतना ही उन्हें बुरा लगेगा और उनका गुस्सा तुम पर निकलेगा। उन्हें पता नहीं, कि जिस आबहवा में उन्होंने अपनी जिन्दगी बितायी है, वह अब नहीं रही। विचार-स्वातंत्र्य और समयानुकूलता उनकी दृष्टि में अधर्म से कम नहीं। मैंने यह उपाय सोचा है कि किसी दूसरे शहर में चल कर अपना अड्डा जमाऊँ। मेरी वकालत भी यहाँ नहीं चलती, इसलिए किसी बहाने की भी आवश्यकता न पड़ेगी।

मैं इस तजवीज के विरुद्ध कुछ न बोली। यद्यपि मुझे अकेले रहने से भय लगता था, तथापि वहाँ स्वतन्त्र रहने की आशा ने मन को प्रफुल्लित कर दिया।

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