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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580

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इसके कुछ दिन बाद हम इलाहाबाद चले गये। बाबू जी ने पहले ही एक दो-मंजिला मकान ले रखा था, जो सब तरह से सजा-सजाया था। हमारे यहाँ पाँच नौकर थे। दो स्त्रियाँ, दो पुरुष और एक महाराज। अब मैं घर के कुल काम-काज से छुटी पा गयी। कभी जी घबराता तो कोई उपन्यास लेकर पढ़ने लगती।

यहाँ फूल और पीतल के बर्तन बहुत कम थे। चीनी मिट्टी की रकाबियाँ और प्याले आलमारियों में सुसज्जित थे। भोजन मेज पर आता था। बाबू जी बड़े चाव से भोजन करते। मुझे पहले कुछ शरम आती थी, लेकिन धीरे-धीरे मैं भी मेज ही पर भोजन करने लगी। हमारे पास एक सुन्दर टमटम भी थी। अब हम पैदल बिलकुल न चलते। बाबू जी कहते ‘यही फैशन है।’

बाबू जी की आमदनी अभी बहुत कम थी। भली-भाँति खर्च भी न चलता था। कभी-कभी मैं उन्हें चिन्ताकुल देखती तो समझाती कि जब आय इतनी कम है तो व्यय इतना क्यों बढ़ा रखा है? कोई छोटा-सा मकान ले लो। दो नौकरों से भी काम चल सकता है। लेकिन बाबू जी मेरी बातों पर हँस देते और कहते, ‘मैं अपनी दरिद्रता का ढिंढोरा अपने-आप क्यों पीटूँ? दरिद्रता प्रकट करना दरिद्र होने से अधिक दु:खदायी होता है। भूल जाओ कि हम लोग निर्धन हैं, फिर लक्ष्मी हमारे पास आप दौड़ी आयेगी। खर्च बढ़ना, आवश्यकताओं का अधिक होना ही द्रव्योपार्जन की पहली सीढ़ी है इससे हमारी गुप्त शक्तियाँ विकसित हो जाती है। और हम उन कष्टों को झेलते हुए आगे पग धरने के योग्य होते हैं। संतोष दरद्रिता का दूसरा नाम है।’

अस्तु, हम लोगों का खर्च दिन–दिन बढ़ता ही जाता था। हम लोग सप्ताह में तीन बार थियेटर जरूर देखते। सप्ताह में एक बार मित्रों को भोज अवश्य ही दिया जाता। अब मुझे सूझने लगा कि जीवन का लक्ष्य सुख-भोग ही है। ईश्वर को हमारी उपासना की चाह नहीं। उसने हमको उत्तम-उत्तम वस्तुएँ भोगने को दी हैं। यही उसकी भोगना सर्वोत्तम आराधना है। एक ईसाई लेडी मुझे पढ़ाने तथा गाना सिखाने आने लगी। घर में एक पियानो भी आ गया। इन्हीं आनन्दों में फँस कर मैं रामायण और भक्तमाल को भूल गयी। वे पुस्तकें मुझे अप्रिय लगने लगीं। देवताओं पर से विश्वास उठ गया।

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