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कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :225
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8584

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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ


कुछ और व्यतिक्रम भी हुए, ज्वर का प्रकोप और भी बढ़ा; पर उस दशा में भी जब ज्वर कुछ हल्का हो जाता, तो किताबें देखने लगता था। उसके प्राण मुझमें ही बसे रहते थे। ज्वर की दशा में भी नौकरों से पूछता–भैया का पत्र आया? वह कब आएँगे? इसके सिवा और कोई अभिलाषा न थी। अगर मुझे मालूम होता कि मेरी कश्मीर यात्रा इतनी महँगी पड़ेगी, तो उधर जाने का नाम भी न लेता। उसे बचाने के लिए मुझसे जो कुछ हो सकता था। वह मैंने सब किया; किंतु बुखार टायफाइड था, उसकी जान लेकर ही उतरा। उसके जीवन के स्वप्न मेरे लिए किसी ऋषि के आशीर्वाद बनकर मुझे प्रोत्साहन करने लगे और यह उसी का शुभ फल है कि आज आप मुझे इस दशा में देख रहे हैं। मोहन की बाल-अभिलाषाओं को प्रयत्क्ष रूप में लाकर मुझे यह संतोष होता है कि शायद उसकी पवित्र आत्मा मुझे देखकर प्रसन्न होती हो। यही प्रेरणा थी, जिसने कठिन परीक्षाओं में भी बेड़ा पार लगाया; नहीं तो मैं आज भी वही मंदबुद्धि सूर्यप्रकाश हूँ, जिसकी सूरत से आप चिढ़ते थे।

उस दिन से मैं कई बार सूर्यप्रकाश से मिल चुका हूँ। वह जब इस तरफ आ जाता है, तो बिना मुझसे मिले नहीं जाता। मोहन को अब भी वह अपना इष्टदेव समझता है। मानव-प्रकृति का एक ऐसा रहस्य है, जिसे मैं आज तक नहीं समझ सका।

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डिमांस्ट्रेशन

महाशय गुरुप्रसाद जी रसिक जीव हैं, गाने-बजाने का शौक है, खाने-खिलाने का शौक है; पर उसी मात्रा में द्रव्योपार्जन का शौक नहीं है। यों वह किसी के मोहताज नहीं हैं। भले आदमियों की तरह रहते हैं। और हैं भी भले आदमी; मगर किसी काम में चिमट नहीं सकते। गुड़ होकर भी उनमें लस नहीं है। वह कोई ऐसा काम उठाना चाहते हैं जिसमें चटपट क़ारूँ का खजाना मिल जाये और हमेशा के लिए बेफ्रिक हो जाएँ। बैंक से छः माही सूद चला आए, खाएँ और मजे से पड़े रहें। किसी ने सलाह दी, नाटक-कंपनी खोलो। उनके दिल को बात जम गयी। मित्रों को लिखा–मैं ड्रामेटिक कम्पनी खोलने जा रहा हूँ आप लोग ड्रामें लिखना शुरू कीजिए।

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