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कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :225
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8584

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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ


मरहम-पट्टी होने लगी। बूढ़ा दिन-के-दिन और रात-की-रात पंडित जी के पास बैठा रहता। उसके घरवाले उनकी सेवा-शुश्रूषा में लगे रहते। गाँववाले भी यथाशक्ति सहायता करते। इस बेचारे का यहाँ कौन अपना बैठा हुआ है? अपने हैं तो हम बेगाने हैं तो हम। हमारे ही उद्धार के लिए तो बेचारा यहाँ आया था, नहीं तो यहाँ उसे क्या लेना था? कई बार पंडित जी अपने घर पर बीमार पड़ चुके थे। पर उनके घरवालों ने इतनी तन्मयता से कभी तीमारदारी न की थी। सारा घर, और घर ही नहीं, सारा गाँव उनका गुलाम बना हुआ था।

अतिथि-सेवा उनके धर्म का एक अंग थी। सभ्य-स्वार्थ ने अभी उस भाव का गला नहीं घोटा था। साँप का मंत्र जाननेवाला देहाती अब भी माघ-पूस की अँधेरी मेघाच्छन्न रात्रि में मंत्र झाड़ने के लिए-पाँच कोस पैदल दौड़ता हुआ चला जाता है। उसे डबल फीस और सवारी की जरूरत नहीं होती। बूढ़ा मल-मूत्र कर अपने हाथों उठाकर फेंकता, पंडितजी की घुड़कियाँ सुनता, सारे गाँव से दूध मांगकर उन्हें पिलाता; पर उसकी त्योरियाँ कभी मैली न होतीं। अगर उसके कहीं चले जाने पर घरवाले लापरवाही करते, तो आकर सबको डाँटता।

महीने भर के बाद पंडितजी चलने-फिरने लगे, और अब उन्हें ज्ञात हुआ कि इन लोगों ने मुझे मौत के मुँह से निकाला नहीं तो मरने में क्या कसर रह गयी थी? उन्हें अनुभव हुआ कि मैं जिन लोगों को नीच समझता था। और जिनके उद्धार का बीड़ा उठाकर आया था, वे मुझसे कहीं ऊँचे हैं। इस परिस्थिति में मैं कदाचित रोगी को किसी अस्पताल भेजकर ही अपनी कर्तव्य निष्ठा पर गर्व करता; समझता मैंने दधीचि और हरिशचन्द्र का मुँख उज्जवल कर दिया। उनके रोएँ-रोएँ से इन देव-तुल्य प्राणियों के प्रति आशीर्वाद निकलने लगा।

तीन महीने गुजर गए। न तो हिंदू-सभा ने पंडितजी की खबर ली, और न घरवालों ने। सभा के मुखपत्र में उनकी मृत्यु पर आँसू बहाए गए। उनके कामों की प्रशंसा की गई और उनका स्मारक बनाने के लिए चंदा खोल दिया गया घरवाले भी रो-पीटकर बैठ रहे।

उधर पंडित जी दूध और घी खाकर चौक-चौबंद हो गए। चेहरे पर खून की सुर्खी दौड़ गई, देह भर आयी। देहात की जलवायु ने वह काम कर दिखाया, जो कभी मलाई और मक्खन से न हुआ था। पहले की तरह तो वह न हुए, पर फुर्ती और चुस्ती दोगनी हो गई मोटाई का आलस्य अब नाम को भी न था। उनमें एक नए जीवन का संचार हो गया।

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