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कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :225
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8584

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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ


स्वास्थ्य और चरित्र-पालन के सिद्धांतों का मैं शत्रु था; पर अब मुझसे बढ़कर उन नियमों का रक्षक दूसरा न था। मैं ईश्वर का उपहास किया करता था, मगर अब पक्का आस्तिक हो गया था। वह बड़े सरल भाव से पूछता, परमात्मा सब जगह रहते हैं, तो पास भी रहते होंगे। इस प्रश्न का मजाक उड़ाना मेरे लिए असम्भव था। मैं कहता–हाँ, परमात्मा तुम्हारे, हमारे, सबके पास रहते हैं और रक्षा करते हैं। यह आश्वासन पाकर उसका चेहरा आनंद से खिल उठता था। कदाचित वह परमात्मा की सत्ता का अनुभव करने लगता था। साल भर में मोहन कुछ से कुछ हो गया। मामा साहब दुबारा आये, तो उसे देखकर चकित हो गए। आँखों में आँसू भरकर बोले–बेटा! तुमने इसको जिला लिया नहीं तो मैं निराश हो चुका था। इसका पुनीत फल तुम्हें ईश्वर देंगे इसकी माँ स्वर्ग में बैठी हुई तुम्हें आशीर्वाद दे रही है।

सूर्यप्रकाश की आँखें उस वक्त सजल हो गई थीं।

मैंने पूछा–मोहन भी तुम्हें बहुत प्यार करता होगा?

सूर्यप्रकाश के सजल नेत्रों में हसरत से भरा हुआ आनंद चमक उठा, बोला–वह मुझे एक मिनट के लिए भी न छोड़ता था। मेरे साथ बैठता मेरे साथ खाता, मेरे साथ सोता। मैं ही उसका सब कुछ था। आह! वह संसार में नहीं है; मगर मेरे लिए वह अब भी उसी तरह जीता जागता है। मैं जो कुछ हूँ, उसी का बनाया हुआ हूँ। अगर वह दैवी विधान की भाँति मेरा पथ-प्रदर्शक न बन जाता, तो शायद आज मैं किसी जेल में पड़ा होता। एक दिन मैंने कह दिया था–अगर तुम रोज नहा न लिया करोगे, तो मैं तुमसे न बोलूँगा। नहाने से वह जाने क्यों जी चुराता था। मेरी इस धमकी का फल यह हुआ कि वह प्रातः काल नहाने लगा। कितनी ही सर्दी क्यों न हो, कितनी ही ठण्डी हवा चले, लेकिन वह स्नान अवश्य करता था। देखता रहता था, मैं किस बात से खुश होता हूँ।

एक दिन मैं कई मित्रों के साथ थिएटर देखने चला गया, ताकीद कर गया कि तुम खाना खाकर सो रहना। तीन बजे रात को लौटा तो देखा कि वह बैठा हुआ है। मैंने पूछा–तुम सोए नहीं? बोला–नींद नहीं आयी। उस दिन से मैंने थियटर जाने का नाम न लिया। बच्चों में प्यार की जो भूख होती है–दूध, मिठाई और खिलौनों से भी ज्यादा मादक-जो माँ की गोद के सामने संसार की निधि की भी परवाह नहीं करते, मोहन की भूख कभी संतुष्ट न होती थी। पहाड़ों से टकराने वाली सारस की आवाज की तरह वह सदैव उसकी नसों में गूँजा करती थी। जैसे भूमि पर फैली लता कोई सहारा पाते ही उससे चिपट जाती है, वही हाल मोहन का था। वह मुझसे ऐसा चिपट गया था कि पृथक किया जाए, तो उसकी कोमल बेल के टुकड़े-टुकड़े हो जाते। वह मेरे साथ तीन साल रहा और तब मेरे जीवन में प्रकाश की एक रेखा-सी डालकर अंधकार में विलीन हो गया। उस जीर्ण काया में कैसे-कैसे अरमान भरे हुए थे! कदाचित् ईश्वर ने मेरे जीवन में एक अवलम्बन की सृष्टि करने के लिए उसे भेजा था। उद्देश्य पूरा हो गया, तो वह क्यों रहता।

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