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प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


मुंशी सत्यनारायण के घर में दो स्त्रियाँ थीं–माता और पत्नी। वे दोनों अशिक्षित थीं। तिस पर भी मुंशीजी को गंगा में डूब मरने या कहीं जाने की जरूरत न होती थी। न वे बाडी पहनती थीं। न मोजे-जूते, न हारमोनियम पर गा सकती थी। यहाँ तक कि उन्हें साबुन लगाना भी न आता था। हेयर पिन, ब्रुचेज़ और जाकेट आदि परमावश्यक चीजों का तो उन्होंने नाम भी नहीं सुना था। बहू में आत्मसम्मान जरा भी नहीं था; न सास में आत्मगौरव का जोश। बहू अब तक सास की घुड़कियां भीगी बिल्ली की तरह सह लेती थी–हा मूर्खे! सास को बच्चे के नहलाने-धुलाने, यहाँ तक कि घर में झाड़ू देने से भी घृणा न थी, हा ज्ञानांधे! बहू स्त्री क्या थी, मिट्टी का लौंदा थी। एक पैसे की जरूरत होती तो सास से मांगती। सारांश यह कि दोनों जनी अपने अधिकारों से बेखबर, अंधकार में पड़ी हुई पशुवत् जीवन व्यतीत करती थीं। ऐसी फूहड़ थी कि रोटियाँ भी अपने हाथ से बना लेती थीं। कंजूसी के मारे दालमोट, समोसे कभी बाजार से न मँगातीं। आगरेवाले की दुकान से ही चीजें खायी होतीं, तो उनका मजा जानती। बुढ़िया खूसट दवा-दरपन भी जानती थी। बैठी-बैठी घास-पात कूटा करती।

मुंशीजी ने मां के पास जाकर कहा–अम्मा! अब क्या होगा? भानुकुँवरि ने मुझे जवाब दे दिया।

माता ने घबराकर पूछा–जवाब दे दिया?

मुंशीजी–हां, बिलकुल बेकसूर!

माता–क्या बात हुई? भानुकुँवरि का मिजाज तो ऐसा न था।

मुंशीजी–बात कुछ न थी। मैंने अपने नाम से जो गाँव लिया था, उसे मैंने अपने अधिकार में कर लिया। कल मुझसे और उनसे साफ-साफ बातें हुई, मैंने कह दिया कि यह गाँव मेरा है। मैंने अपने नाम से लिया है। उसमें तुम्हारा कोई इजारा नहीं। बस, बिगड़ गईं, जो मुँह में आया, बकती रहीं। उसी वक्त मुझे निकाल दिया और धमकाकर कहा, मैं तुमसे लड़कर अपना गाँव ले लूँगी! अब आज ही उनकी तरफ से मेरे ऊपर मुकदमा दायर हो गया। मगर इससे होता क्या है। गांव मेरा है। उस पर मेरा कब्जा है। एक नहीं, हजार मुकदमे चलाएं डिगरी मेरी ही होगी...

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