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प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586

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मुंशीजी ने सावधानी से जवाब दिया–यह तो आप जानती ही हैं कि गाँव मेरे नाम से बय हुआ है। रुपया जरूर आपका लगा, पर उसका मैं देनदार हूँ। रहा तहसील-वसूल का खर्च, यह सब मैंने हमेशा अपने पास से किया है। उसका हिसाब-किताब, आय-व्यय, सब अलग रखता आया हूँ।

भानुकुँवरि ने क्रोध से काँपते हुए कहा–इस कपट का फल आपको अवश्य मिलेगा। आप इस निर्दयता से मेरे बच्चों का गला नहीं काट सकते। मुझे नहीं मालूम था कि आपने हृदय में यह छुरी छिपा रखी है, नहीं तो यह नौबत ही क्यों आती? खैर, अब से मेरी रोकड़ और मेरी बही-खाता आप कुछ न छुएँ, मेरा जो कुछ होगा ले लूंगी। जाइए, एकान्त में बैठकर सोचिए। पाप से किसी का भला नहीं होता। तुम समझते होगे कि ये बालक अनाथ हैं; इनकी सम्पति हजम कर लूँगा! इस भूल में न रहना। मैं तुम्हारे घर की ईंट तक बिकवा लूँगी!

यह कहकर भानुकुँवरि फिर परदे की आड़ में आ बैठी और रोने लगी। स्त्रियाँ क्रोध के बाद किसी-न-किसी बहाने रोया करती हैं। लाला साहब को कोई जवाब न सूझा। वहाँ से उठ आये और दफ्तर में जाकर कुछ कागज उलट-पुलट करने लगे। पर भानुकुँवरि भी उनके पीछे-पीछे दफ्तर में पहुँची और डाँटकर बोली–मेरा कोई कागज मत छूना, नहीं तो बुरा होगा; तुम विषैले साँप हो! मैं तुम्हारा मुँह नहीं देखना चाहती!

मुंशीजी कागज में कुछ कागज काट-छाँट करना चाहते थे, पर विवश हो गए! खजाने की कुंजी निकालकर फेंक दी, बही-खाते पटक दिये, किवाड़ धड़ाके से बंद किए और हवा की तरह सन्न से निकल गये। कपट में हाथ तो डाला, पर कपट-मंत्र न जाना।

दूसरे कारिंदों ने यह कैफियत सुनी तो फूले न समाए। मुंशीजी के सामने उनकी दाल न गलने पाती थी। भानुकुँवरि के पास आकर वे आग पर तेल छिड़कने लगे! सब लोग इस विषय में सहमत थे कि मुंशी सत्यनारायण ने विश्वासघात किया है। मालिक का नमक उनकी हड्डियों से फूट-फूटकर निकलेगा।

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