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प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


गोरेलाल–मुझे क्षमा कीजिएगा। मुझे इसका खेद है कि आपके रुपये देने में इतना विलम्ब हुआ। पहली तारीख को घर से एक आवश्यक पत्र आ गया और मैं किसी तरह तीन महीने की छुट्टी लेकर घर भागा। वहाँ की विपत्ति-कथा कहूँ तो समाप्त न हो। लेकिन आपकी बीमारी का शोक-समाचार सुनकर आज भागा चला आ रहा हूँ। ये लीजिए रुपये हाजिर हैं। इस विलम्ब के लिये अत्यन्त लज्जित हूँ।

ब्रजनाथ का क्रोध शांत हो गया। विनय में कितनी शक्ति है! बोले–जी हाँ, बीमार तो था, लेकिन अब अच्छा हो गया हूँ। आपको मेरे कारण व्यर्थ कष्ट उठाना पड़ा। यदि इस समय आपको असुविधा हो, तो रुपये फिर दे दीजिएगा। मैं अब उऋण हो गया हूँ। कोई जल्दी नहीं है।

गोरेलाल विदा हो गए तो ब्रजनाथ रुपया लिये हुए भीतर आये और भामा से बोले–ये लो अपने रुपये, गोरेलाल दे गए।

भामा ने कहा–ये मेरे नहीं हैं तुलसी के हैं, एक बार पराया धन लेकर सीख गई।

‘लेकिन तुलसी के तो पूरे रुपये दे दिये गये।’

‘दे दिये गये तो क्या हुआ, ये उसके आशीर्वाद की न्योछावर हैं।’

‘कान में झुमके कहाँ से आयँगे?’

‘झुमके न रहेंगे न सही, सदा के लिए कान तो हो गए।’

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