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कहानी संग्रह >> प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


ऐ मुसाफिर, छह महीने गुजर गए और पंडित श्रीधर वापस न आये। पहाड़ों की चोटियों पर छाया हुआ हिम घुल-घुलकर नदियों में बहने लगा, उसकी गोद में फिर रंग-बिरंग के फूल लहलहाने लगे, चंद्रमा की किरणें फिर फूलों की महक सूँघने लगीं, पर्वतों के पक्षी अपनी वार्षिक यात्रा समाप्त कर फिर स्वदेश आ पहुँचे, किन्तु पंडितजी रियासत के कामों में ऐसे उलझे कि फिर निरंतर आग्रह करने पर भी अर्जुननगर न आये। विद्याधरी की ओर से वे उतने उदासीन क्यों हुए, समझ में नहीं आता था। उन्हें तो उसका वियोग एक क्षण के लिए भी असह्य था। किन्तु इससे अधिक आश्चर्य की बात यह थी कि विद्याधरी ने भी आग्रहपूर्ण पत्रों के लिखने के अतिरिक्त उसके पास जाने का कष्ट न उठाया। वह अपने पत्रों में लिखती-स्वामीजी, मैं बहुत व्याकुल हूँ, यहाँ मेरा जी जरा भी नहीं लगता, एक-एक दिन एक-एक वर्ष के समान जाता है, न दिन को चैन है, न रात को नींद। क्या आप मुझे भूल गए? मुझसे कौन-सा अपराध हुआ? क्या आपको मुझ पर दया भी नहीं आती? मैं आपके वियोग में रो-रोकर मरी जाती हूँ। नित्य स्वप्न देखती हूँ कि आप आ रहे हैं, पर यह स्वप्न कभी सच्चा नहीं होता। उसके पत्र ऐसे ही प्रेममय शब्दों से भरे होते थे, और इसमें भी कोई संदेह नहीं कि जो कुछ वह लिखती थी, वह भी अक्षरशः सत्य था। मगर इतनी व्याकुलता, इतनी चिंता और इतनी उद्विग्नता पर भी उसके मन में कभी यह प्रश्न न उठा कि क्यों न मैं ही उसके पास चली चलूँ।

बहुत ही सुहावनी ऋतु थी। ज्ञानसागर में यौवन-काल की अभिलाषाओं की भाँति कमल के फूल खिले हुए थे। राजा रणधीर सिंह की पच्चीसवीं जयंती का शुभ मुहूर्त्त आया। सारे नगर में आनंदोत्सव की तैयारियाँ होने लगीं। गृहिणियाँ कोरे-कोरे दीपक पानी में भिगोने लगीं कि अधिक तेल न सोख जाएँ। चैत की पूर्णिमा थी, किन्तु दीपक की जगमगाहट ने ज्योत्स्ना को मात कर दिया था।

मैंने राजा साहब के लिए इस्फहान से रत्न-जटित तलवार मँगा रखी थी। दरबार के अन्य जागीरदारों और अधिकारियों ने भी भाँति-भाँति के उपहार मँगा रखे थे। मैंने विद्याधरी के घर जाकर देखा, तो वह पुष्प-हार गूँथ रही थी। मैं आध घंटे तक उसके सम्मुख खड़ी रही; किन्तु वह अपने काम में इतनी व्यस्त थी कि उसे मेरी आहट भी न मिली। तब मैंने धीरे से पुकारा–‘बहन!’ विद्याधरी ने चौंककर सिर उठाया, और बड़ी शीघ्रता से वह हार फूल की डाली में छिपा, लज्जित होकर बोली–‘क्या तुम देर से खड़ी हो?’ मैंने उत्तर दिया–‘आध घंटे से अधिक हुआ।’

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