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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


ठीक नौ बजे पर्दा उठा। राधिका हाथ में वीणा लिये, कदम के नीचे खड़ी सूरदास का एक पद गा रही थी। यद्यपि राधिका का पार्ट उस पर फबता न था। उसकी गौरवशीलता, उसकी प्रौढ़ता, उसकी प्रतिभा एक चंचल ग्वाल कन्या के स्वभावानुकूल न थी, किन्तु जगमगाहट ने सबकी समालोचक शक्तियों को वशीभूत कर लिया था। सारी सभा विस्मय और अनुराग में डूबी हुई थी, यह तो कोई स्वर्ग की अप्सरा है! उसकी मृदुल वाणी, उसका कोमल गान, उसके अलंकार और भूषण, उसके हाव-भाव उसके स्वर-लालित्य, किस-किस की प्रशंसा की जाये! वह एक थी, अद्वितीय थी, कोई उसका सानी, उसका जवाब न था।

राधा के पीछे तीन सखियाँ और आयी– ललिता, चन्द्रावली और श्यामा। सब अपनी-अपनी विरह-कथा सुनाने लगीं। कृष्ण की निष्ठुरता और कपट की चर्चा होने लगी। उस पर घरवालों की रोक-थाम, डाँट-डपट भी मारे डालती थी। एक बोली– मुझे तो पनघट पर जाने की रोक हो रही है, दूसरे बोली– मैं तो द्वार खड़ी हो कर झाँकने भी न पाती, तीसरी बोली– जब दही बेचने जाती हूँ तब बुढ़िया साथ हो लेती है। राधिका ने सजल नेत्र हो कर कहा, मैं तो बदनाम हो गयी, अब किसी से उनकी बात नहीं हो सकती। ललिता बोली– वह आप ही निर्दयी हैं, नहीं तो क्या मिलने का कोई उपाय ही न था?

चन्द्रावली– उन्हें हमको जलाने और तड़पाने में आनन्द मिलता है?

श्यामा– यह बात नहीं, वह हमारे घरवालों से डरते हैं।

राधा– चल, तू उनका यों ही पक्ष लिया करती है। बड़े चतुर तो बनते हैं? क्या इन बुद्धुओं को भी धता नहीं बता सकते? बात यह है कि उन्हें हमारी सुध ही नहीं है।

ललिता– चलो, आज हम सब उनको परखें।

इस पर सब सहमत हो गयीं। इधर-उधर चौकन्नी आँखों से ताक-ताक कर हाथों से बता-बता कर, भौंहे नचा-नचा कर आपस में सलाह होने लगी। परीक्षा का क्या रूप होगा, इसका निश्चय हो गया। चारों प्रसन्न हो कर एक गीत गाती हुई स्टेज से चली गईं। पर्दा गिर गया।

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