सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
विद्यावती इस वक्त केवल संयोग से आ गयी थी। वह ऊपर अपने कमरे में बैठी सोच रही थी कि गायत्री बहिन को क्या हो गया है? उसे क्योंकर समझाऊँ कि यह महापुरुष (ज्ञानशंकर) तुझे प्रेम और भक्ति के सब्ज बाग दिखा रहे हैं। यह सारा स्वाँग तेरी जायदाद के लिए भरा जा रहा है। न जाने क्यों धन-सम्पत्ति के पीछे इतने अन्धे हो रहे हैं कि धर्म विवेक को पैरों तले कुचले डालते हैं। हृदय का कितना काला, कितना धूर्त, कितना लोभी, कितना स्वार्थान्ध मनुष्य है कि अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए किसी की जान, किसी की आबरू की भी परवाह नहीं करता। बातें तो ऐसी करता है मानों ज्ञानचक्षु खुल गये हों। मानों ऐसा साधु-चरित्र, ऐसा विद्वान, परमार्थी पुरुष संसार में न होगा। अन्तःकरण में कूट-कूट कर पशुता, कपट और कुकर्म भरा हुआ है। बस, इसे यही धुन है कि गायत्री किसी तरह माया को गोद ले ले, उसकी लिखा-पढ़ी हो जाय और इलाके पर मेरा प्रभुत्व जम जाये, उसका सम्पूर्ण अधिकार मेरे हाथों में आ जाये। इसीलिए इसने यह ज्ञान और भक्ति का जाल फैला रखा है। भगत बन गया है, बाल बढ़ा लिए हैं, नाचता है, गाता है, कन्हैया बनता है। कितनी भयंकर धूर्त्तता है, कितना घृणित व्यवहार, कितनी आसुरी प्रवृत्ति!
वह इन्हीं विचारों में मग्न थी कि उसके कानों में गायत्री के गाने की आवाज आयी। वह वीणा पर सूरदास का एक पद गा रही थी। राग इतना सुमधुर और भावमय था, ध्वनि इतनी करुणा और आकांक्षा भरी हुई थी, स्वर में इतना लालित्य और लोच था कि विद्या का मन सुनने के लिए लोलुप हो गया, वह विवश हो गयी, स्वर-लालित्य ने उसे मुग्ध कर दिया। उसने सोचा, अनुराग और हार्दिक वेदना के बिना गाने में यह असर, यह विरक्ति असम्भव है। इसकी लगन सच्ची है, इसकी भक्ति सच्ची है। इस पर मन्त्र डाल दिया गया है। मैं इस मन्त्र को उतार दूँ, हो सके तो उसे गार में गिरने से बचा लूँ, उसे जता दूँ, जगा दूँ। निःसन्देह यह महोदय मुझ से नाराज होंगे, मुझे वैरी समझेंगे, मेरे खून के प्यासे हो जायँगे, कोई चिन्ता नहीं। इस काम में अगर मेरी जान भी जाय तो मुझे विलम्ब न करना चाहिए। जो पुरुष ऐसा खूनी, ऐसा विघातक, ऐसा रँगा हुआ सियार हो, उससे मेरा कोई नाता नहीं। उसका मुँह देखना, उसके घर में रहना, उसकी पत्नी कहलाना पाप है।
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