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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


विद्या ने त्यौरियाँ बदल कर कहा– मैं अपनी बहिन के पास आयी हूँ, जब तक वह मुझे जाने को न कहेगी, मैं न जाऊँगी।

ज्ञानशंकर ने गरज कर कहा– चली जा, नहीं तो अच्छा न होगा।

विद्या ने निर्भीकता से उत्तर दिया– कभी नहीं, तुम्हारे कहने से नहीं!

ज्ञानशंकर क्रोध से काँपते हुए तड़िद्वेग से विद्या के पास आये और चाहा कि झपट कर उसका हाथ पकड़ लूँ कि गायत्री खड़ी हो गयी और गर्व से बोली– मेरी समझ में नहीं आता कि आप इतने क्रुद्ध क्यों हो रहे हैं? मुझसे मिलने आयी है और मैं अभी न जाने दूँगी।

गायत्री की आँखों में अब भी आँसू थे, गला अभी तक थरथरा रहा था, सिसकियाँ ले रही थी, पर यह विगत जलोद्वेग के लक्षण थे, अब सूर्य निकल आया था। वह फिर अपने आपे में आ चुकी थी, उसका स्वाभाविक अभिमान फिर जाग्रत हो गया!

ज्ञानशंकर ने कहा– गायत्री देवी, तुम अपने को बिलकुल भूली जाती हो। मुझे अत्यन्त खेद है कि बरसों की भक्ति और प्रेम की वेदी पर आत्मसमर्पण करके भी तुम ममत्व के बन्धनों में जकड़ी हुई हो। याद करो तुम कौन हो? सोचो, मैं कौन हूँ? सोचा, मेरा और तुम्हारा क्या सम्बन्ध है? क्या तुम इस पवित्र सम्बन्ध को इतना जीर्ण समझ रही हो कि उसे वायु और प्रकाश से भी बचाया जाये? वह एक आध्यात्मिक सम्बन्ध है, अटल और अचल है। कोई पार्थिक शक्ति उसे तोड़ नहीं सकती। कितने शोक की बात है कि हमारे आत्मिक ऐक्य से भली-भाँति परिचित होकर भी तुम मेरी इतनी अवहेलना कर रही हो। क्या मैं यह समझ लूँ कि तुम इतने दिनों तक केवल गुड़ियों का खेल– खेल रही थीं? अगर वास्तव में यही बात है तो तुमने मुझे कहीं का न रखा। मैं अपना तन और मन, धर्म और कर्म सब प्रेम की भेंट कर चुका हूँ। मेरा विचार था कि तुमने भी सोच-समझ कर प्रेम-पथ पर पग रखा है और उसकी कठिनाइयों को जानती हो। प्रेम का मार्ग कठिन है, दुर्गम और अपार। यहाँ बदनामी है, कलंक है। यहाँ लोकनिन्दा और अपमान है, लांछन है– व्यंग्य है। यहाँ वही धाम पर पहुँचता है जो दुनिया से मुँह मोड़े, संसार से नाता तोड़े। इस मार्ग में सांसारिक सम्बन्ध पैरों की बेड़ी है, उसे तोड़े बिना एक पग भी रखना असम्भव है। यदि तुमने परिणाम का विचार नहीं किया और केवल मनोविनोद के लिए चल खड़ी हुई तो तुमने मेरे साथ घोर अन्याय किया। इसका अपराध तुम्हारी गर्दन पर होगा।

यद्यपि ज्ञानशंकर मनोभावों को गुप्त रखने में सिद्धहस्त थे, पर इस समय उनका खिसियाया हुआ चेहरा उनकी इस सारगर्भित प्रेमव्याख्या का पर्दा खोल देता था। मुलम्मे की अँगूठी ताव खा चुकी थी।

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