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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


यह सोचते-सोचते गायत्री की आँखें अनुरक्त हो गयीं। वह कम्पित स्वर से बोली– भगवन! तुम्हारी चेरी तुम्हारे सामने हाथ बाँधे खड़ी अपने अपराधों की क्षमा माँगती है।

ज्ञानशंकर ने उसे चुभती हुई दृष्टि से देखा और समझ गये कि मेरे आँसू काम कर गये। इस तरह चौंक पड़े मानों नींद से जगे हो और बोले– राधा?

गायत्री– मुझे क्षमा दान दीजिए।

ज्ञान– तुम मुझसे क्षमा दान माँगती हो? यह तुम्हारा अन्याय है! तुम प्रेम की देवी हो, वात्सल्य की मूर्ति, निर्दोष, निष्कलंक। यह मेरा दुर्भाग्य है कि तुम इतनी अस्थिर चित्त हो! प्रेमियों के जीवन में सुख कहाँ? तुम्हारी अस्थिरता ने मुझे संज्ञाहीन कर दिया है। मुझे अब भी भ्रम हो रहा कि गायत्री देवी से बातें कर रहा हूँ या राधा रानी से। मैं अपने आपको भूल गया हूँ। मेरे हृदय को ऐसा आघात पहुँचा है कि कह नहीं सकता यह घाव कभी भरेगा या नहीं? जिस प्रेम और भक्ति को मैं अटल समझता था, वह बालू की भीत से भी ज्यादा पोली निकली। उस पर मैंने जो आशालता आरोपित की थी, जो बाग लगाया था वह सब जलमग्न हो गया। आह! मैं कैसे-कैसे मनोहर स्वप्न देख रहा था? सोचा था, यह प्रेम वाटिका कभी फूलों से लहरायेगी, हम और तुम सांसारिक मायाजाल को हटा कर वृन्दावन के किसी शान्तिकुंज में बैठे हुए भक्ति का आनन्द उठायेंगे। अपनी प्रेम-ध्वनि से वृक्ष कुंजों को गुंजित कर देंगे। हमारे प्रेम-गान से कालिन्दी की लहरें प्रतिध्वनित हो जायेंगी। मैं कृष्ण का चाकर बनूँगा, तुम उनके लिए पकवान बनाओगी। संसार से अलग, जीवन के अपवादों से दूर हम अपनी प्रेम-कुटी बनायेंगे और राधाकृष्ण की अटल भक्ति में जीवन के बचे हुए दिन काट देंगे अथवा अपने ही कृष्ण मन्दिर में राधाकृष्ण के चरणों से लगे हुए इस असार संसार से प्रस्थान कर जायेंगे। इसी सदुद्देश्य से मैंने आपकी रियासत की और यहाँ की पूरी व्यवस्था की। पर अब ऐसा प्रतीत हो रहा है कि वह सब शुभ कामनायें दिल में ही रहेंगी और मैं शीघ्र ही संसार से हताश और भग्न-हृदय विदा हूँगा।

गायत्री प्रेमोन्मत हो कर बोली– भगवान् ऐसी बातें मुँह से न निकालो। मैं दीन अबला हूँ, अज्ञान के अन्धकार में डूबी हुई मिथ्या भ्रम में पड़ जाती हूँ, पर मैंने तुम्हारा दामन पकड़ा है, तुम्हारी शरणागत हूँ, तुम्हें मेरी क्षुद्रताएँ, मेरी दुर्बलताएँ सभी क्षमा करनी पड़ेंगी। मेरी भी यह अभिलाषा है कि तुम्हारे चरणों से लगी रहूँ। मैं भी संसार से मुँह मोड़ लूँगी, सबसे नाता तोड़ लूँगी और तुम्हारे साथ बरसाने और वृन्दावन की गलियों में विचरूँगी। मुझे अगर कोई सांसारिक चिन्ता है तो वह यह है कि मेरे पीछे मेरे इलाके का प्रबन्ध सुयोग्य हाथों में रहे, मेरी प्रजा पर अत्याचार न हो और रियासत की आमदनी परमार्थ में लगे। मेरा और तुम्हारा निर्वाह दस-बारह हजार रुपयों में हो जायेगा। मुझे और कुछ न चाहिए। हाँ, यह लालसा अवश्य है कि मेरी स्मृति बनी रहे, मेरा नाम अमर हो जाये, लोग मेरे यश और कीर्ति की चर्चा करते रहें। यही चिन्ता है जो अब तक मेरे पैरों की बेड़ी बनी हुई है। आप इस बेड़ी को काटिए। यह भार मैं आपके ही ऊपर रखती हूँ। ज्यों ही आप इन दोनों बातों की व्यवस्था कर देंगे मैं निश्चिन्त हो जाऊँगी और फिर यावज्जीवन हम में वियोग न होगा। मेरी तो यह राय है कि एक ‘ट्रस्ट’ कायम कर दीजिए। मेरे पतिदेव की भी यह इच्छा थी।

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