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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


विद्या सारी रात इसी उद्वग्नि दशा में पड़ी रही। कभी सोचती लखनऊ चली जाऊँ और वहाँ जीवनक्षेप करूँ, कभी सोचती जीकर करना ही क्या है, ऐसे जीने से मरना क्या बुरा है? सारी रात आँखों में कट गई। दिन निकल आया, लेकिन उसका उठने का जी न चाहता था। इतने में श्रद्धा आकर खड़ी हो गई और उसके श्रीहीन मुख की ओर देखकर बोली– आज सारी रात जागती रही? आँखें लाल हो रही हैं।

विद्या ने आँखें नीची करके कहाँ– हाँ, आज नींद नहीं आई।

श्रद्धा– गायत्री देवी से कुछ बातचीत नहीं हुई। मुझे तो ढंग ही निराले दीखते हैं। तुम तो इनकी बड़ी प्रशंसा किया करती थीं।

विद्या– क्यों, कोई नयी बात देखी क्या?

श्रद्धा– नित्य ही देखती हूँ। लेकिन रात जो दृश्य देखा और जो बातें सुनी वह कहते लज्जा आती है। कोई ग्यारह बजे होंगे। मुझे अपने कमरे में पड़े-पड़े नीचे किसी के बोल-चाल की आहट मिली। डरी कि कहीं चोर न आये हों। धीरे से उठकर नीचे गयी। दीवानखाने में लैम्प जल रहा था। मैंने शीशे से झांका तो मन में कटकर रह गयी। अब तुमसे क्या कहूँ, मैं गायत्री को इतना चंचल न समझती थी। कहाँ तो कृष्णा की उपासना करती है, कहाँ छिछोरापन। मैं तो उन्हें देखते ही मन में खटक गई थी, पर यह न जानती थी कि इतने गहरे पानी में है।

विद्या– मैंने भी तो कुछ ऐसा तमाशा देखा था। तुम मेरे आने के बहुत देर पीछे गई थी। मुझे लखनऊ में ही सारी कथा मालूम हो गयी थी। इसी भयंकर परिणाम को रोकने के लिए मैं वहाँ से दौड़ी आई, किन्तु यहाँ का रंग देखकर हताश हो गई। ये लोग अब मँझधार में पहुँच चुके हैं, इन्हें बचाना दुस्तर है। लेकिन मैं फिर कहूँगी कि इसमें गायत्री बहिन का दोष नहीं, सारी करतूत इन्हीं महाशय की है जो जटा बढ़ाए पीताम्बर पहने भगत जी बने फिरते हैं। गायत्री बेचारी सीधी-सादी, सरल स्वभाव की स्त्री है। धर्म की ओर उसकी विशेष रुचि है, इसीलिए यह महाशय भी भगत बन बैठे और यह भेष धारण करके उस पर अपना मन्त्र चलाया। ऐसा पापात्मा संसार में न होगा। बहिन, तुमसे दिल की बात कहती हूँ, मुझे इनकी सूरत से घृणा हो गयी। मुझ पर ऐसा आघात हुआ है कि मेरा बचना मुश्किल है। इस घोर पाप का दण्ड अवश्य मिलेगा। ईश्वर न करे मुझे इन आँखों से कुल का सर्वनाश देखना पड़े। वह सोने की घड़ी होगी जब संसार से मेरा नाता टूटेगा।

श्रद्धा– किसी की बुराई करना तो अच्छा नहीं है और इसीलिए मैं अब तक सब कुछ देखती हुई भी अन्धी बनी रही, लेकिन अब बिना बोले नहीं रहा जाता। मेरा वश चले तो ऐसी कुटिलाओं का सिर कटवा लूँ। यह भोलापन नहीं है, बेहयाई है। दिखाने के लिए भोली बनी बैठी हुई हैं। पुरुष हजार रसिया हो हजार चतुर हो, हजार घातिया हो, हजार डोरे डाले, किन्तु सती स्त्रियों पर उसका मन्त्र भी नहीं चल सकता। वह आँख ही क्या जो एक निगाह में पुरुष की चाल-ढाल को ताड़ न ले। जलाना आग का गुण है, पर हरी लकड़ी को भी किसी ने जलते देखा है? हया स्त्रियों की जान है, इसके बिना वह सूखी लकड़ी है जिन्हें आग की एक चिनगारी जलाकर राख कर देती है। इसे अपने पति देव की आत्मा पर भी दया न आयी। उसे कितना क्लेश हो रहा होगा? इसके आने से मेरा घर अपवित्र हो गया। रात को दोनों प्रेमियों की बातों की भनक जो मेरे कान में पड़ी, उससे ऐसा कुछ मालूम होता है कि गायत्री माया को गोद लेना चाहती है।

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