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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


एक दिन वे एक पत्र लिये हुए गायत्री के पास आ कर बोले, गोरखपुर से यह बहुत जरूरी खत आया है। मुख्तार साहब ने लिखा है कि वे फसल के दिन हैं। आप लोगों का आना जरूरी है, नहीं तो सीर की उपज हाथ न लगेगी नौकर-चाकर खा जायँगे।

गायत्री ने रुष्ट होकर कहा– इसका उत्तर तो मैं पीछे दूँगी, पहले यह बतलाइए कि आप मेरी चिट्ठियाँ क्यों खोल लिया करते हैं?

ज्ञानशंकर सन्नाटे में आ गये, समझ गये कि मैं इसकी आँखों में उससे कहीं ज्यादा गिर गया हूँ जितना मैं समझता हूँ। बगलें झाँकते हुए बोले– मेरा अनुमान था कि इतनी आत्मिक घनिष्ठता के बाद इस शिष्टाचार की जरूरत नहीं रही। लेकिन आपको नागवार लगता है तो आगे ऐसी भूल न होगी।

गायत्री ने लज्जित होकर कहा– मेरा आशय यह नहीं था। मैं केवल यह चाहती हूँ कि मेरी निज की चिट्ठियाँ न खोली जाया करें।

ज्ञानशंकर– इस धृष्टता का कारण यह था कि मैं अपनी आत्मा को। आपकी आत्मा में संयुक्त समझता था, लेकिन ऐसा जान पड़ता है कि इस घर के द्वेष-पोषक जलवायु ने हमारे बीच में भी अन्तर डाल दिया। भविष्य में ऐसा दुस्साहस न होगा। मालूम होता है कि मेरे कुदिन आए हैं। देखें क्या-क्या झेलना पड़ता है।

गायत्री ने बात का पहलू बदलकर कहा– मुख्तार साहब को लिख दीजिए कि अभी हम लोग न आ सकेंगे, तहसील-वसूल शुरू कर दें।

ज्ञानशंकर– मेरे विचार में हम लोगों का वहाँ रहना जरूरी है।

गायत्री– तो आप चले जाएँ मेरे जाने की क्या जरूरत है? मैं अभी यहाँ कुछ दिन और रहना चाहती हूँ।

ज्ञानशंकर ने हताश होकर कर कहा जैसी आपकी इच्छा। लेकिन आपके बिना वहाँ एक-एक क्षण मुझे एक-एक साल मालूम होगा। कृष्णमन्दिर तैयार ही है। यहाँ भजन-कीर्तन में जो आनन्द आएगा वह यहाँ दुर्लभ है। मेरी इच्छा थी कि अबकी बरसात वृन्दावन में कटती। इस आशा पर पानी फिर गया। आप मेरे जीवन-पथ की दीपक हैं, आप ही मेरे प्रेम और भक्ति की केन्द्रस्थल हैं। आप के बिना मुझे अपने चारों ओर अँधेरा दिखाई देगा। सम्भव है कि पागल हो जाऊँ।

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