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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है

५२

बाबू ज्वालासिंह को बनारस से आये आज दूसरा दिन था। कल तो वह थकावट के मारे दिन भर पड़े रहे, पर प्रातःकाल ही उन्होंने लखनपुरवालों की अपील का प्रश्न छेड़ दिया। प्रेमशंकर ने कहा– मैं तो आप ही की बाट जोह रहा था। पहले मुझे प्रत्येक काम में अपने ऊपर विश्वास होता था, पर आप सा सहायक पाकर मुझे पग-पग पर आपसे सहारे की इच्छा होती है। अपने ऊपर से विश्वास ही उठ गया। आपके विचार में अपील करने के लिए कितने रुपये चाहिए?

ज्वालासिंह– ज्यादा नहीं तो चार-पाँच हजार तो अवश्य ही लग जायेंगे।

प्रेम– और मेरे पास चार-पाँच सौ भी नहीं है।

ज्वाला– इसकी चिन्ता नहीं। आपके नाम पर दस-बीस हजार मिल सकते हैं।

प्रेम– मैं ऐसा कौन सा जाति का नेता हूँ जिस पर लोगों की इतनी श्रद्धा होगी?

ज्वाला– जनता आपको आपसे अधिक समझती है। मैं आज ही चन्दा वसूल करना शुरू कर दूँगा।

प्रेम– मुझे आशा नहीं कि आपको इसमें सफलता होगी। सम्भव है दो-चार सौ रुपये मिल जायँ, लेकिन लोग यहीं समझेंगे कि उन्होंने भी कमाने का यह ढंग निकाला। चन्दे के साथ ही लोगों को सन्देह होने लगता है। आप तो देखते ही हैं, चन्दों ने हमारे कितने ही श्रेद्धेय नेताओं को बदनाम कर दिया। ऐसा बिरला ही कोई मनुष्य होगा जो चन्दों के भँवर में पड़कर बेदाग निकल गया हो। मेरे पास श्रद्धा के कुछ गहने अभी बचे हुए हैं। अगर वह सब बेच दिया जाय तो शायद हजार रुपये मिल जायँ।

इतने में शीलमणि इन लोगों के लिए नाश्ता लायी। यह बात उसके कानों में पड़ीं बोली-कभी उनके सुधि भी लेते हैं या गहनों पर हाथ साफ करना ही जानते हैं? अगर ऐसी ही जरूरत है तो मेरे गहने ले जाइये।

ज्वाला– क्यों न हो, आप ऐसी ही दानी तो हैं। एक-एक गहने के लिए तो आप महीनों रूठती हैं, उन्हें लेकर कौन अपनी जान गाढ़े से डाले!

शील– जिस आग से आदमी हाथ सेंकता है, क्या काम पड़ने पर उससे अपने चने नहीं भून लेता। स्त्रियाँ गहने पर प्राण देती हैं लेकिन अवसर पड़ने पर उतार भी फेंकती हैं।

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