सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
370 पाठक हैं |
‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
प्रेम– प्रतिष्ठा का ध्यान रखना आवश्यक है।
माया– मैं तो देखता हूँ आप इन चीजों के बिना ही सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं, सभी आपकी इज्जत करते हैं। मेरे स्कूल के लड़के भी आपका नाम आदर से लेते हैं, हालाँकि शहर के और बड़े रईसों की हँसी उड़ाते हैं। मेरे लिए किसी विशेष चीज की जरूरत क्यों हो?
माया के प्रत्येक उत्तर पर प्रेमशंकर का हृदय अभिमान से फूला पड़ता था। उन्हें आश्चर्य होता था कि इस लड़के में संतोष और त्याग का भाव क्योंकर उदित हुआ? इस उम्र में तो प्रायः लड़के टीमटाम पर जान देते हैं, सुन्दर वस्त्रों से उनका जी नहीं भरता, चमक-दमक की वस्तुओं पर लट्टू हो जाते है। यह पूर्व संस्कार हैं और कुछ नहीं। निरुत्तर होकर बोले– रानी गायत्री की यही इच्छा थी, नहीं तो इतने रुपये क्यों खर्च करतीं?
माया– यदि उनकी यह इच्छा होती तो यह वह मुझे ताल्लुकेदारों के स्कूलों में नहीं भेज देतीं? मुझे आपकी सेवा में रखने से उनका उद्देश्य यही होगा कि मैं आपके ही पदचिह्न पर चलूँ।
प्रेम– तो यह रुपये खर्च क्योंकर होंगे?
माया– इसका फैसला रानी अम्माँ ने आप पर ही छोड़ दिया है। मुझे आप उसी तरह रखिए जैसे आप अपने लड़के को रखते हैं। मुझे ऐसी शिक्षा न दीजिये और ऐसे व्यसनों में न डालिये कि मैं अपनी दीन प्रजा के दुःख-दर्द में शरीक न हो सकूँ। आपके विचार में मेरी शिक्षा की यही सबसे उत्तम विधि है?
प्रेम– नहीं, मेरा विचार तो ऐसा नहीं, लेकिन दुनिया को दिखाने के लिए ऐसा ही करना पड़ेगा। नहीं तो लोग यहीं कहेंगे कि मैं तुम्हारी वृत्ति का दुरुपयोग कर रहा हूँ।
माया– तो आप मुझे इस ढंग पर शिक्षा देना चाहते हैं जिसे आप स्वयं उपयोगी नहीं समझते। लोगों के दुराक्षेपों से बचने के ही लिए आप ने यह व्यवस्थाएँ की हैं।
प्रेमशंकर शरमाते हुए बोले– हाँ बात तो कुछ ऐसी ही है।
माया– मैंने अपने वजीफे के खर्च करने की और भी विधि सोची है। आप बुरा न मानें तो कहूँ।
प्रेम– हाँ-हाँ, शौक से कहो। तुम्हारी बातों से मेरी आत्मा प्रसन्न होती है। मैं तुम्हें इतना विचारशील न समझता था।
ज्वालासिंह– इस उम्र में मैंने किसी को इतना चैतन्य नहीं देखा।
|