सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
लेकिन चाट बुरी लत है। अच्छे दिनों में वह गले की जंजीर है, किन्तु बुरे दिनों में तो यह पैनी छुरी हो जाती है जो आत्म-सम्मान और लज्जा का तसमा भी नहीं छोड़ती। माघ का महीना, सर्दी का यह हाल था कि नाड़ियों में रक्त जमा जाता था। लाला प्रभाशंकर नित्य वायु सेवन के बहाने प्रेमशंकर के पास जा पहुँचते और देश-काल के समाचार सुनते। मौका पाते ही किसी न किसी स्वादिष्ट पदार्थ की चर्चा छेड़ देते, उस समय की कथा कहने लगते जब चीज खायी थी, मित्रों ने उस पर क्या-क्या टिप्पणियाँ की थीं। प्रेमशंकर उनका इशारा समझ जाते और शीलमणि से वह पदार्थ बनवा कर लाते, लेकिन प्रभाशंकर की स्वाद लिप्सा कितनी दारुण थी इसका उन्हें ज्ञान न था। अतएव कभी-कभी लाला जी का मनोरथ वहाँ भी पूरा न होता। तब घर आते समय वह सीधी राह से न आते। स्वाद-तृष्णा उन्हें नानवाइयों के मुहल्ले में ले जाती। प्याज और मसालों की सुगन्ध से उनकी लोलुप आत्मा तृप्त होती थी। कितना करुणाजनक दृश्य था! सत्तर साल का बूढ़ा, उच्च कुल मर्यादा पर जान देनेवाला पुरुष गन्ध से रस का आनन्द उठाने के लिए घंटों नानवाइयों की गली में चक्कर लगाया करता, लज्जा से मुँह छिपाये हुए कि कोई देख न ले! ताजे कबाब की सुगन्ध से उनके मुँह में पानी भर आता, यहाँ तक कि खाद्याखाद्य का विचार भी न रहता। उस समय केवल एक अव्यक्त शंका, एक मिथ्या संकोच उनके फिसलते हुए पैरों को सँभाल दिया करता था।
एक दिन लालाजी प्रेमशंकर के पास गये तो उन्होंने अपील का फैसला सुनाया। प्रभाशंकर प्रसन्न हो कर बोले– यह बहुत अच्छा हुआ। ईश्वर ने तुम्हारा उद्योग सफल किया। बेचारे निरपराध किसान जेल में पड़े सड़ रहे थे। ईश्वर बड़ा दयालु है। इन आनन्दोत्सव में एक दावत होनी चाहिए।
माया बोला– जी हाँ, यही तो अभी मैं कह रहा था। मैं तो अपने स्कूल के सब लड़कों को नेवता दूँगा।
प्रेमशंकर– पहले बेचारे आ तो जायें। अभी तो उनके आने में महीनों की देर है, कोई किसी जेल में है, कोई किसी में। जज ने तो पुलिस का पक्ष करना चाहा था, पर डॉक्टर इर्फान अली ने उसकी एक न चलने दी।
प्रभा– इन जजों का यही हाल है। उनका अभीष्ट सरकार का रोब जमाना होता है, न्याय करना नहीं। इस मुकदमे में तुमने दौड़-धूप न की होती तो उन बेचारों की कौन सुनता? ऐसे कितने निरपराधी केवल पुलिस के कौशल तथा वकीलों की दुर्जनता के कारण दण्ड भोगा करते हैं। मैं तो जब वकीलों को बहस करते देखता हूँ तो ऐसा मालूम होता है मानों भाट कवित्त पढ़ रहे हों। न्याय पर किसी पक्ष की दृष्टि नहीं होती। दोनों मौखिक बल से एक दूसरे को परास्त करना चाहते हैं। जो वाक्चतुर है उसी की जीत होती है। आदमियों के जीवन-मरण का निर्णय सत्य और न्याय के बल पर नहीं, न्याय को धोखा देने के बल पर होता है।
प्रेम– जब तक मुद्दई और मुद्दालेह अपने-अपने वकील अदालत में लायेंगे तब तक इस दिशा में सुधार नहीं हो सकता, क्योंकि वकील तो अपने मुवक्किल का मुख-पात्र होता है। उसे सत्यासत्य निर्णय से कोई प्रयोजन नहीं, उसका कर्तव्य केवल अपने मुवक्किल के दावे को सिद्ध करना है। सच्चे न्याय की आशा तो तभी हो सकती है जब वकीलों को अदालत स्वयं नियुक्त करे और अदालत भी राजनीतिक भावों और अन्य दुस्संस्कारों से मुक्त हो। मेरे विचार में गवर्नमेन्ट को पुलिस में सुयोग्य और सच्चरित्र आदमी छाँट-छाँट कर रखने चाहिए। अभी तक इस विभाग में सच्चरित्रता पर जरा भी ध्यान नहीं दिया गया। वही लोग भर्ती किये जाते हैं जो जनता को दबा सकें, उन पर रोब जमा सकें। न्याय का विचार नहीं किया जाता।
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