सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
प्रेमशंकर– जी हाँ, मेरा ही नाम है।
मुंशी– आप खूब आये। दारोगाजी अभी आपका ही जिक्र कर रहे थे। आपका अकसर जिक्र किया करते हैं। चलिए, मैं आपके साथ चलता हूँ। कान्सटेबिल सब उन्हीं की खिदमत में हाजिर हैं। कई दिन से बहुत बीमार हैं।
प्रेम– बीमार हैं? क्या शिकायत है?
मुंशी– जाहिर में तो बुखार है, पर अन्दर का हाल कौन जाने? हालत बहुत बदतर हो रही है। जिस दिन से दोनों छोटे भाइयों की बेवक्त मौत की खबर सुनी उसी दिन से बुखार आया। उस दिन से फिर थाने नहीं आये। घर से बाहर निकलने की नौबत न आयी। पहले भी थाने में बहुत कम आते थे, नशे में डूबे पड़े रहते थे, ज्यादा नहीं तो तीन-चार बोतल रोजाना जरूर पी जाते होंगे लेकिन इन पन्द्रह दिनों से एक घूँट भी नहीं पी। खाने की तरफ ताकते ही नहीं। या तो बुखार में बेहोश पड़े रहते हैं या तबियत जरा हल्की हुई तो रोया करते हैं। ऐसा मालूम होता है कि फाजिल गिर गयी है, करवट तक नहीं बदल सकते। डॉक्टरों का ताँता लगा हुआ है, मगर कोई परदा नहीं होता। सुना आप कुछ हिम्मत करते हैं। देखिए शायद आपकी दवा कारगर हो जाय। बड़ा अनमोल आदमी था। हम लोगों को ऐसा सदमा हो रहा है जैसे कोई अपना अजीज उठा जाता हो। पैसे की मुहब्बत छू तक नहीं गयी थी। हजारों रुपये माहवार लाते थे और सब का सब अमलों के हाथों में रख देते थे। रोजाना शराब मिलती जाय बस, और कोई हवस न थी। किसी मातहत से गलती हो जाय, पर कभी शिकायत न करते थे, बल्कि सारा इलजाम अपने सर ले लेते थे। क्या मजाल कि कोई हाकिम उनके मातहतों को तिर्छी निगाह से भी देख सके, सीना-सिपर हो जाते थे। मातहतों की शादी और गमी में इस तरह शरीक होते थे, जैसे कोई अपना अज़ीज हो। कई कानिस्टेबिलों की लड़कियों की शादियाँ अपने खर्च से करा दीं। उनके लड़कों की तालीम की फीस अपने पास से देते थे, अपनी सख्ती के लिए सारे इलाके में बदनाम थे। सारा इलाका उनका दुश्मन था, मगर थानेवाले चैन करते थे। हम गरीबों को ऐसा गरीब-परवर और हमदर्द अफसर न मिलेगा।
मुंशीजी ने ऐसे अनुरक्त भाव से यह यश गान किया कि प्रेमशंकर गद्गद हो गये। वह दयाशंकर को लोभी, कुटिल, स्वार्थी समझते थे कि जिसके अत्याचारों के इलाके में हाहाकार मचा हुआ था। जो कुल का द्रोही, कुपुत्र और व्यभिचारी था, जिसने अपनी विलासिता और विषयवासना और धुन में माता-पिता, भाई-बहन यहाँ तक कि अपनी पत्नी से मुँह फेर लिया था। उनकी दृष्टि में वह एक बेशर्म, पतित हृदय शून्य आदमी था। यह गुणानुवाद सुनकर उन्हें अपनी संकीर्णता पर बहुत खेद हुआ। वह मन में अपना तिरस्कार करने लगे। उन्हें फिर आत्मिक यन्त्रणा मिली– हा! मुझमे कितना अहंकार है। मैं कितनी जल्द भूल जाता हूँ कि यह विराट जगत् अनन्त ज्योति से प्रकाशमय हो रहा है। इसका एक-एक परमाणु उसी ज्योति से आलोकित है। यहाँ किसी मनुष्य को नीचा या पतित समझना ऐसा पाप है जिसका प्रायश्चित नहीं। मुंशी जी से पूछा– डॉक्टरों ने कुछ तशखीस नहीं की?
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