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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


थाने के कई अमले और चौकीदार आ कर बैठ गये और दयाशंकर की सहृदयता और सज्जनता की सराहना करने लगे। प्रभाशंकर उनकी बातें सुनकर गर्व से फूल जाते थे।

आठ बजे प्रेमशंकर ने जाकर फिर दवा पिलायी और वहीं रात भर एक आराम कुर्सी पर लेटे रहे। पलक को झपकने भी न दिया।

सबेरे प्रियनाथ आये और दयाशंकर को देखा तो प्रसन्न हो कर बोले– अब जरा भी चिन्ता नहीं है, इनकी हालत बहुत अच्छी है। एक सप्ताह में यह अपना काम करने लगेंगे। दवा से ज्यादा बाबू प्रेमशंकर की सुश्रूषा का असर है। शायद आप रात को बिलकुल न सोये?

प्रेमशंकर– सोया क्यों नहीं? हाँ, घोड़े बेचकर नहीं सोया।

प्रभाशंकर– डॉक्टर साहब, मैं गवाही देता हूँ कि रात भर इनकी आँखें नहीं झपकीं। मैं कई बार झाँकने आया तो इन्हें बैठे या कुछ पढ़ते पाया।

दयाशंकर ने श्रद्धामय भाव से कहा– जीता बचा तो बाकी उम्र इनकी खिदमत में काटूँगा। इनके साथ रह कर मेरा जीवन सुधर जायेगा।

इस भाँति एक हफ्ता गुजर गया। डॉक्टर प्रियनाथ रोज आते और घंटे भर ठहर तक देहातों की ओर चले जाते। प्रभाशंकर तो दूसरे ही दिन घर चले गये, लेकिन प्रेमशंकर एक दिन के लिए भी न हिले। आठवें दिन दयाशंकर पालकी में बैठकर घर जाने के योग्य हो गये। उनकी छुट्टी मंजूर हो गयी थी।

प्रातःकाल था। दयाशंकर थाने से चले। यद्यपि वह केवल तीन महीने की छुट्टी पर जा रहे थे, पर थाने के कर्मचारियों को ऐसा मालूम हो रहा कि अब इनसे सदा के लिए साथ छूट रहा है। सारा थाना मील भर तक उनकी पालकी के साथ दौड़ता हुआ आया। लोग किसी तरह लौटते ही न थे। अन्त में प्रेमशंकर के बहुत दिलासा देने पर लोग विदा हुए। सब के सब फूट-फूट कर रो रहे थे।

प्रेमशंकर मन में पछता रहे थे कि ऐसे सर्वप्रिय श्रद्धेय मनुष्य से मैं इतने दिनों तक घृणा करता रहा। दुनिया में ऐसे सज्जन, ऐसे दयालु, ऐसे विनयशील पुरुष कितने हैं, जिनकी मुट्टी में इतने आदमियों के हृदय हों, जिनके वियोग से लोगों को इतना दुःख हो।

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