सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
दोपहर तक भोजन होता रहा। शहर के हजारों आदमी इस आनन्दोत्सव में शरीक थे। प्रेमशंकर ने सबको आदर से बिठाया। इतने में बाजार से मिठाइयाँ आ गयीं, लोगों ने नाश्ता किया और प्रेमशंकर का यश-गान करते हुए विदा हुए, लेकिन लखनपुर वालों को छुट्टी न मिली। श्रद्धा ने कहला भेजा कि खा-पीकर शाम को जाना। यद्यपि सब-के-सब घर पहुँचने के लिए उत्सुक हो रहे थे, पर यह निमन्त्रण कैसे अस्वीकार करते। लाला प्रभाशंकर भोजन बनवाने लगे। अब तक उन्होंने केवल बड़े आदमियों को ही व्यजंन-कला से मुग्ध किया था। आज देहातियों को भी यह सौभाग्य प्राप्त हुआ। लाला ऐसा स्वादयुक्त भोजन देना चाहते थे जो उन्हें तृप्त कर दें, जिसको वह सदैव याद करते रहें। भाँति-भाँति के पकवान बनने लगे। बहुत जल्दी की गयी, फिर भी खाते-खाते आठ बज गये। प्रियनाथ और इर्फानअली ने अपनी सवारियाँ भेज दी थीं। उस पर बैठ कर लोग लखनपुर चले। सब ने मुक्त कंठ से आशीर्वाद दिये। अभी घर वाले बाकी थे। उनके खाने में दस बज गये। प्रेमशंकर हाजीपुर जाने को प्रस्तुत हुए तो महरी ने आकर धीरे से कहा, बहू जी कहती हैं कि आज यहीं सो रहिये रात बहुत हो गयी है। इस असाधारण कृपा-दृष्टि ने प्रेमशंकर को चकित कर दिया। वह इसका मर्म न समझ सके।
ज्वालासिंह ने महरी से हँसी की– हम लोग भी रहे या चले जायँ?
महरी सतर्क थी। बोली– नहीं सरकार, आप भी रहे, माया भैया भी रहें, यहाँ किस चीज की कमी है?
ज्वाला– चल, बातें बनाती है!
महरी चली गयी तो वह प्रेमशंकर से बोले– आज मालूम होता है आपके नक्षत्र बलवान हैं। अभी और विजय प्राप्त होने वाली है।
प्रेमशंकर ने विरक्त भाव से कहा– कोई नया उपदेश सुनना पड़ेगा और क्या?
ज्वाला– जी नहीं, मेरा मन कहता है कि आज देवी आपको वरदान देगी। आपकी तपस्या पूरी हो गयी।
प्रेम– मेरी देवी इतनी भक्तवत्सला नहीं है।
ज्वाला– अच्छा, कल आप ही ज्ञात हो जायेगा। हमें आज्ञा दीजिये।
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