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रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600

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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


सूरदास–तो क्या खाओगे बेटा? इतनी रात गए और क्या मिलेगा?

मिट्ठू–मैं तो दूध-रोटी खाऊंगा।

सूरदास–बेटा, इस जून खा लो। सबेरे मैं दूध ला दूंगा।

मिट्ठू रोने लगा। सूरदास उसे बहलाकर हार गया, तो अपने भाग्य को रोता हुआ उठा, लकड़ी संभाली और टटोलता हुआ बजरंगी अहीर के घर आया, जो उसके झोंपड़े के पास ही था। बजरंगी खाट पर बैठा नारियल पी रहा था। उसकी स्त्री जमुनी खाना पकाती थी। आंगन में तीन भैंसें और चार-पांच गायें चरनी पर बंधी हुई चारा खा रही थीं। बजरंगी ने कहा–कैसे चले सूरे? आज बग्घी पर कौन लोग बैठे तुमसे बातें कर रहे थे?

सूरदास–वही गोदाम के साहब थे।

बजरंगी–तुम तो बहुत दूर तक गाड़ी के पीछे दौंड़े, कुछ हाथ लगा?

सूरदास–पत्थर हाथ लगा। ईसाइयों में भी कहीं दया-धर्म होता है। मेरी वही जमीन लेने को कहते थे।

बजरंगी–गोदाम के पीछेवाली न?

सूरदास–हां वही, बहुत लालच देते रहे, पर मैंने हामी नहीं भरी।

सूरदास ने सोचा था, अभी किसी से यह बात न कहूंगा, पर इस समय दूध लेने के लिए खुशामद जरूरी थी। अपना त्याग दिखाकर सुर्खरू बनना चाहता था।

बजरंगी–तुम हामी भरते, तो यहां कौन उसे छोड़े देता था। तीन-चार गांवों के बीच में वही तो जमीन है। वह निकल जाएगी, तो हमारी गायें और भैंसे कहा जाएंगी?

जमुनी–मैं तो इन्हीं के द्वार पर सबको बांध आती।

सूरदास–मेरी जान निकल जाए, तब तो बेचू ही नहीं, हजार-पांच सौ की क्या गिनती। भौजी, एक घूंट दूध हो तो दे दो। मिठुआ खाने बैठा है। रोटी और गुड़ छूता ही नहीं, बस, दूध-दूध की रट लगाए हुए हैं। जो चीज घर में नहीं होती, उसी के लिए जिद करता है। दूध न पाएगा तो बिना खाए ही सो रहेगा।

बजरंगी–ले जाओ, दूध का कौन अकाल है। अभी दुहा है। घीसू की मां, एक कुल्हिया दूध दे दे सूरे को।

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