नई पुस्तकें >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
4 पाठकों को प्रिय 138 पाठक हैं |
नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
नायकराम–पट्ठा बात बेलाग कहता है कि एक बार सुनकर फिर किसी की जबान नहीं खुलती।
ठाकुरदीन–अब भजन-भाव हो चुका। ढोल-मंजीरा उठाकर रख दो।
दयागिरि–तुम कल से यहां न आया करो, भैरों।
भैरों–क्यों न आया करें? मंदिर तुम्हारा बनवाया नहीं है। मंदिर भगवान का है। तुम किसी को भगवान के दरबार में आने से रोक दोगे?
नायकराम–लो बाबाजी, और लोगे, अभी पेट भरा कि नहीं?
जगधर–बाबाजी, तुम्हीं गम खा जाओ, इससे साधु-संतो की महिमा नहीं घटती। भैरों, साधु-संतों की बात का तुम्हें बुरा न मानना चाहिए।
भैरों–तुम खुशामद करो, क्योंकि खुशामद की रोटियां खाते हो। यहां किसी के दबैल नहीं हैं।
बजरंगी–ले अब चुप ही रहना भैरों, बहुत हो चुका। छोटा मुंह, बड़ी बात।
नायकराम–तो भैरों को धमकाते क्या हो? क्या कोई भगोड़ा समझ लिया है? तुमने जब दंगल मारे थे, तब मारे थे, अब तुम वही नहीं हो। आजकल भैरों की दुहाई है।
भैरों नायकराम के व्यंग्य-हास्य पर झल्लाया नहीं, हंस पड़ा। व्यंग्य में विष नहीं था, रस था। संखिया मरकर रस हो जाती है।
भैरों का हंसना था कि लोगों ने अपने-अपने साज संभाले, और भजन होने लगा। सूरदास की सुरीली तान आकाश-मंडल में यों नृत्य करती हुई मालूम होती थी, जैसे प्रकाश-ज्योति जल के अंतस्तल में नृत्य करती है–
काहे कै ताना, काहे कै भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया?
इंगला-पिंगला ताना-भरनी, सुखमन तार से बीनी चदरिया।
आठ कंवल-दस-चरखा डोले, पांच तत्त, गुन तीनी चदरिया;
साईं को सियत मास दस लागै, ठोक-ठोक कै बीनी चदरिया।
सो चादर सुर-नर-मुनि ओढ़ै, ओढ़िकै मैली कीनी चदरिया;
दास कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों-की-त्यों धर दीनी चदरिया।
|