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रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600

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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


मिसेज सेवक–मैं सब कुछ करके हार गई। उस पर खुदा की लानत है। मैं इनका मुंह नहीं देखना चाहती।

ईश्वर सेवक–ऐसी बात न करो। वह मेरे खून का खून, मेरी जान की जान, मेरे प्राणों का प्राण है। मैं उसे कलेजे से लगाऊंगा। प्रभु मसीह ने विधर्मियों को छाती से लगाया था, कुकर्मियों को अपने दामन में शरण दी थी, वह मेरी सोफ़िया पर अवश्य दया करेंगे। ईसू, मुझे अपने दामन में छुपा।

जब मिसेज सेवक ने अब भी सहारा न दिया, तो ईश्वर सेवक लड़की के सहारे उठे और लाठी टेकते हुए सोफ़िया के कमरे में द्वार पर आकर बोले–बेटी सोफ़ी, कहां है? इधर आ बेटी, तुझे गले से लगाऊं। मेरा मसीह खुदा का दुलारा बेटा था, दीनों का सहायक, निर्बलों का रक्षक, दरिद्रों का मित्र, डूबतों का सहारा, पापियों का उद्धारक, दुखियों का पार लगानेवाला ! बेटी, ऐसा और कौन-सा नबी है, जिसका दामन इतना चौड़ा हो, जिसकी गोद में संसार के सारे पापों, सारी बुराईयों के लिए स्थान हो? वही एक ऐसा नबी है, जिसने दुरात्माओं को, अधर्मियों को, पापियों को मुक्ति की शुभ सूचना दी, नहीं तो हम-जैसे मलिनात्माओं के लिए मुक्ति कहां थी? हमें उबारनेवाला कौन था?

यह कहकर उन्होंने सोफ़ी को हृदय से लगा लिया। माता के कठोर शब्दों ने उसके निर्बल क्रोध को जाग्रत कर दिया था। अपने कमरे में आकर रो रही थी, बार-बार मन उद्विग्न हो उठता था। सोचती थी, अभी, इसी क्षण, इस घर से निकल जाऊं। क्या इस अनंत संसार में मेरे लिए जगह नहीं है? मैं परिश्रम कर सकती हूं, अपना भार आप संभाल सकती हूं। आत्मस्वातंत्र्य का खून करके अगर जीवन की चिंताओं से निवृत्ति हुई, तो क्या? मेरी आत्मा इतनी तुच्छ वस्तु नहीं है कि उदर पालने के लिए उसकी हत्या कर दी जाए। प्रभु सेवक को अपनी बहन से सहानुभूति थी। धर्म पर उन्हें उससे कहीं कम श्रद्धा थी। किंतु वह अपने स्वतंत्र विचारों को अपने मन ही में संचित रखते थे। गिरजा चले जाते थे, पारिवारिक प्रार्थनाओं में भाग लेते थे; यहां तक कि धार्मिक भजन भी गा लेते थे। वह धर्म को गंभीर विचार के क्षेत्र से बाहर समझते थे।
वह गिरजा उसी भाव से जाते थे, जैसे थिएटर देखने जाते। पहले अपने कमरे से झांककर देखा कि कहीं मामा तो नहीं देख रही है; नहीं तो मुझ पर वज्र-प्रहार होने लगेंगे। तब चुपके से सोफ़िया के पास आए और बोले–सोफ़ी, क्यों, नादान बनती हो? सांप के मुंह में उंगली डालना कौन-सी बुद्धिमानी है? अपने मन में जो विचार रख, जिन बातों को जी चाहे, मानो; जिनको जी न चाहे, न मानों पर इस तरह ढिढोंरा पीटने से क्या फायदा? समाज में नक्कू बनने की क्या जरूरत? कौन तुम्हारे दिल के अंदर देखने जाता है !

सोफ़िया ने भाई को अवहेलना की दृष्टि से देखकर कहा–धर्म के विषय में मैं कर्म को वचन के अनुरूप ही रखना चाहती हूं। चाहती हूं, दोनों से एक ही स्वर निकले। धर्म का स्वांग भरना मेरी क्षमता से बाहर है। आत्मा के लिए मैं संसार के सारे दुःख झेलने को तैयार हूं। अगर मेरे लिए इस घर में स्थान नहीं है, तो ईश्वर का बनाया हुआ विस्तृत संसार तो है ! कहीं भी अपना निर्वाह कर सकती हूं। मैं सारी विडंबनाएं सह लूंगी, लोक-निंदा की मुझे चिंता नहीं है, मगर अपनी ही नजरों में गिरकर मैं जिंदा नहीं रह सकती। अगर यही मान लूं कि मेरे लिए चारों तरफ से द्वार बंद है, तो भी मैं आत्मा को बेचने की अपेक्षा भूखों मर जाना कहीं अच्छा समझती हूं।

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