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रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600

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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


उसके जी में आया, जरा दरिया की सैर करती चलूं। कदाचित किसी सज्जन से भेंट हो जाए। जब तक दो-चार आदमियों से परिचय न हो, और वे मेरा हाल न जाने, मुझसे कौन सहानुभूति प्रकट करेगा? कौन मेरे हृदय की बात जानता है? ऐसे सदय प्राणी सौभाग्य ही से मिलते हैं। जब अपने माता-पिता अपने शत्रु हो रहे हैं, तो दूसरों से भलाई की क्या आशा?

वह इसी नैराश्य की दशा में चली जा रही थी कि सहसा उसे एक विशाल प्रासाद दिख पड़ा, जिसके सामने बहुत चौड़ा हरा मैदान था। अंदर जाने के लिए एक ऊंचा फाटक था, जिसके ऊपर एक सुनहरा गुंबद बना था। इस गुंबद में नौबत बज रही थी, फाटक से भवन तक सुर्खी की एक रविश थी, जिसके दोनों ओर बेलें और गुलाब की क्यारियां थीं। हरी-हरी घास पर बैठे कितने ही नर-नारी माघ की शीतल वायु का आनंद ले रहे थे। कोई लेटा हुआ था, कोई तकिएदार चौकियों पर बैठा सिगार पी रहा था।

सोफ़िया ने शहर में ऐसा रमणीक स्थान न देखा था। उसे आश्चर्य हुआ कि शहर के मध्य भाग में भी ऐसे मनोरम स्थान मौजूद हैं। वह एक चौकी पर बैठ गई और सोचने लगी–अब लोग चर्च से आ गए होंगे। मुझे घर में न देखकर चौंकेंगे तो जरूर; पर समझेंगे, कहीं घूमने गई होगी। अगर रात-भर यही बैठी रहूं तो भी वहां किसी को चिंता न होगी, आराम से खा-पीकर सोएंगे। हां, दादा को अवश्य दुःख होगा, वह भी केवल इसीलिए कि उन्हें बाइबिल पढ़कर सुनानेवाला कोई नहीं। मामा तो दिल में खुश होंगी की अच्छा हुआ, आंखों से दूर हो गई। मेरा किसी से परिचय नहीं। इसी से कहा, सबसे मिलते रहना चाहिए, न जाने कब किससे काम पड़ जाए। मुझे बरसों रहते हो गए और किसी से राह-रस्म न पैदा की। मेरे साथ नैनीताल में यहां के किसी रईस की लड़की पढ़ती थी, भला-सा नाम था। हं, इंदु। कितना कोमल स्वभाव था ! बात-बात से प्रेम टपक पड़ता था। हम दोनों गले में बांहें डाले टहलती थीं। वहां कोई बालिका इतनी सुंदर और ऐसी सुशील न थी। मेरे और उसके विचारों में कितना सादृश्य था ! कहीं उसका पता मिल जाता, तो दस-पांच दिन उसी के यहां मेहमान हो जाती। उसके पिता का अच्छा-सा नाम था। हां, कुंवर भरतसिंह। पहले यह बात ध्यान में न आई, नहीं तो एक कार्ड लिखकर डाल देती। मुझे भूल तो क्या गई होगी, इतनी निष्ठुर तो न मालूम होती थी। कम-से-कम मानव-चरित्र का तो अनुभव हो जाएगा।

मजबूरी में हमें उन लोगों की याद आती है, जिनकी सूरत भी विस्मृत हो चुकी होती है। विदेश में हमें अपने मुहल्ले का नाई या कहार भी मिल जाए, तो हम उसके गले मिल जाते हैं, चाहे देश में उससे कभी सीधे मुंह बात भी न की हो।

सोफ़िया सोच रही थी कि किसी से कुंवर भरतसिंह का पता पूछूं, इतने में भवन में सामनेवाले पक्के चबूतरे पर फर्श बिछ गया। कई आदमी सितार, बेला, मृदंग ले, आ बैठे, और इन साजों के साथ स्वर मिलाकर कई नवयुवक एक स्वर से गाने लगेः

शांति-समर में कभी भूलकर धैर्य नहीं खोना होगा;
वज्र-प्रहार भले सिर पर हो, नहीं किंतु रोना होगा।
अरि से बदला लेने का मन-बीज नहीं बोना होगा;
घर में कान तूल देकर फिर तुझे नहीं सोना होगा।
देश-दाग़ को रुधिर वारि से हर्षित हो धोना होगा;
देश-कार्य की सारी गठरी सिर पर रख ढोना होगा।
आंखें लाल, भवें टेढ़ी कर, क्रोध नहीं करना होगा;
बलि-वेदी पर तुझे हर्ष से चढ़कर कट मरना होगा।
नश्वर है नर-देह, मौत से कभी नहीं डरना होगा;
सत्य-मार्ग को छोड़ स्वार्थ-पथ पैर नहीं धरना होगा।
होगी निश्चय जीत धर्म की यही भाव भरना होगा;
मातृभूमि के लिए जगत में जीना औ’ मरना होगा।


संगीत में न लालत्यि था, न माधुर्य, पर वह शक्ति, वह जागृति भरी हुई थी, जो सामूहिक संगीत का गुण है, आत्मसमर्पण और उत्कर्ष का पवित्र संदेश विराट आकाश में, नील गगन में और सोफ़िया के अशांत हृदय में गूंजने लगा। वह अब तक धार्मिक विवेचन ही में रत रहती थी। राष्ट्रीय संदेश सुनने का अवसर उसे कभी न मिला था। उसके रोम-रोम से वही ध्वनि, दीपक-सी ज्योति के समान निकलने लगी–

मातृभूति के लिए जगत में जीना औ’ मरना होगा।

उसके मन में एक तरंग उठी कि मैं भी जाकर गानेवालों के साथ गाने लगती। भांति-भांति के उद्गार उठने लगे–मैं किसी दूसरे देश में जाकर भारत का आर्त्तनाद सुनाती। यहीं खड़ी होकर कह दूं, मैं अपने को भारत-सेवा के लिए समर्पित करती हूं। अपने जीवन के उद्देश्य पर एक व्याख्यान देती–हम भाग्य के दुःखड़े रोने के लिए, अपनी अवनत दशा पर आंसू बहाने के लिए नहीं बनाए गए हैं।

समा बंधा हुआ था, सोफ़िया के हृदय की आंखों के सामने इन्हीं भावों के चित्र नृत्य करते हुए मालूम होते थे।

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