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रूठी रानी (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :278
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8610

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रूठी रानी’ एक ऐतिहासिक उपन्यास है, जिसमें राजाओं की वीरता और देश भक्ति को कलम के आदर्श सिपाही प्रेमचंद ने जीवन्त रूप में प्रस्तुत किया है

राव जी का देहांत

सवंत् १६०२ में शेरशाह इस दुनिया से सिधारा। उसने सल्तनत का बंदोबस्त बड़ी धूमधाम से किया था और उसकी न्यायप्रियता हिन्दोस्तान के इतिहास में हमेशा याद ही की जाएगी। राजा टोडरमल इसी बादशाह के दरबार में पहले नौकर था और लगान के वह कानून जो अकबर के नाम से जुड़े हुए है, इसी बादशाह की तदबीर के नतीजे हैं।

शेरशाह की मौत की खबर फैलते ही राव जी के राजपूत इधर-उधर से खवास खां पर हमला करने लगे। वह भी कुछ दिनों तक उनका बड़ी जवांमर्दी से सामना करता रहा। आखिरकार जोधपुर के बाजार में मारा गया। रूठी रानी की हिदायत से उसने जोधपुर वालों के साथ बहुत अच्छा बर्ताव किया था। इसलिए वह लोग उसकी लाश को बड़ी इज्जत से खवासपुर ले गए। वहां उसका मकबरा बनवाया, उसके नाम का गांव बसाया, बाग लगवाया, एक और यादगारी कब्र जोधपुर में बनवाई। दोनों जगह उसकी कब्र पर मन्नते चढ़ने लगी। हिन्दू-मुसलमान दोनों आज तक वहां चढ़ावे चढ़ाते हैं और उसका नाम इज्जत से लेते हैं। यह सब उसकी नेकी का फल है जो बहुत कम बादशाहों को मयस्सर हुआ है।

राव जी भी सेवाने से रास्ते के अफगानी थानों को उठाते हुए लड़ते-भिड़ते जोधपुर पहुंच गए और फिर से जोधपुर में राठौरों का राज हुआ। इसके साथ ही खानगी झगड़े भी शुरू हुए जिनका कारण झाली रानी सरूपदेई थी।

राव जी का बड़ा बेटा कुमार राम रानी लाछलदेई कछवाही से पैदा हुआ था। वह ज्यादातर रूठी रानी के पास रहा करता था। उससे छोटा रायमल झाली रानी हीरादेई से था और उदयसेन और चन्द्रसेन रानी सरूपदेई से थे। हीरादेई और सरूपदेई दोनों चचेरी बहनें थीं। वे अपने-अपने बेटों के फायदे के ख्याल से राव जी को कुमार राम की तरफ से झूठी-सच्ची बातें बना-बनाकर विमुख किया करती थीं। राम भी राव जी को अपनी तरफ से खिंचा देखकर खिंचा रहता था और राजदरबारी राव जी के सनकी स्वभाव और कमजोरी को देखकर राम को भड़काते रहते थे।

मारवाड़ में अमीर घराने में मर्दों के लिए दाढ़ी तरशवाने और औरतों के लिए हाथीं दांत का चूड़ा पहनने के दो बड़ी खुशी के मौके होते हैं। इन अवसरों पर खूब महफिलें जमती हैं, खूब दावतें खिलाई जाती हैं। संवत् १६०४ में राम सोलह बरस का हो गया। उसके थोड़ी-थोड़ी दाढी-मूंछ भी निकल आयी। दाढ़ी जब तक ठुड्डी का हो गया। उसके थोड़ी-थोड़ी दाढ़ी-मूंछ भी निकल आयी। दाढ़ी जब तक ठु़ड्टी के ऊपर बीच में से नहीं तराशी जाती उस वक्त तक हिन्दू-मुसलमानों में कोई फर्क नहीं रहता कि जैसे हिन्दू और मुसलमान में दाढ़ी की पहचान है। रानी लाछलदेई ने अपने बेटे कुमार राम की दाढ़ी छंटवाने का सामान करके राव जी से इस रस्म को अदा करने और जश्न मनाने की इजाजत मांगी। उन्होंने मंजूर कर लिया, मगर चूंकि जोधुपुर में बहुत गर्मी थी, इसलिए राम का प्रस्ताव हुआ कि मन्दौर१, में जाकर खुशियां मनाएं, जो दिलकश बागों और नजारों से भरा हुआ है। (१. मन्दौर मारवाड़ की पुरानी राजधानी है। यह जोधपुर से तीन कोस उत्तर एक पहाड़ी के नीचे बसा है।)

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