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रूठी रानी (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :278
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8610

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रूठी रानी’ एक ऐतिहासिक उपन्यास है, जिसमें राजाओं की वीरता और देश भक्ति को कलम के आदर्श सिपाही प्रेमचंद ने जीवन्त रूप में प्रस्तुत किया है


चिता तैयार होते ही यह खबर दूर-दूर तक फैल गई कि रूठी रानी भी राव जी पगड़ी के साथ सती होती हैं। चार-चार, पांच-पांच कोस के लोग इस सती के दर्शन करने के लिए दौड़े। सब हाथ जोड़कर कहते थे– ‘‘सती माता ! तू धन्य है। सच्ची सती इस कलयुग में तू ही है। धन्य है तुझको और तेरे मां-बाप को, इस देश मारवाड़ को, जिसे तू सती होकर पवित्र कर रही है। लाछलदेई, तुझे भी धन्य है। तुम दोनों सतीत्व की देवियां हो, तुम्हें हमारा प्रणाम है।’’

चिता तैयार हो गई, बाजे बजने लगे, दोनों रानियां या दोनों देवियां घोड़ों पर सवार होकर बजारों से निकलीं। ठट के ठट लोग देखने को फटे पड़ते थे। रुपया, जेवर और जवाहरात लुटाए जा रहे थे। चिता पर पहुंच कर दोनों आमने-सामने बैठीं और पति की पगड़ी बीच में रख ली। आग देने वाला कोई न था। सब लोग खड़े देख रहे थे। मारे अदब के किसी के मुंह से आवाज भी नहीं निकली। रूठी रानी का चेहरा चांद-सा चमक रहा था। यकायक कुमार राम बेइज्जती का ख्याल आते ही सुर्ख हो गया। उसके धधकते हुए दिल से नाजुक जबान को झुलसाते हुए यह शब्द निकले– ‘‘मैं तो अपने पति से रूठकर आयी सो आयी पर कोई दूसरी स्त्री इस तरह सौत के बेटे का साथ कभी न दे।’’ लाछलदेई उसका यह तेज देखकर डरी कि कहीं मेरे बेटे को कोई कड़ा शाप न दे दे। खुद बीच में बोल उठीं ताकि रूठी रानी खामोश हो जाए– बाई जी, इस कपूत ने सगी मां का तो कुछ ख्याल ही न किया और क्या करता। वह जरा देर ठहर जाता तो हमें राव जी के साथ जाने में इतनी देर न होती। उसको रोकता कौन था, आग दे देता तो चला जाता।

पति का प्यारा नाम सुनकर उमादेई को जोश आ गया। पति की सच्ची मुहब्बत, सच्चा प्रेम उस पर छा गया। उस वक्त उसकी निगाह जिस पर पड़ती थी वह मतवाला हो जाता था। किसी ने खूब कहा है–  

नैन छके बैना छके छके अधर मुसकाय
छकी दृष्टि जा पर पड़े रोम रोम छक जाय।

यानी आंखें, बातें और मुस्कुराने वाले होंठ सब नशे में मस्त हैं और मस्त निगाहें जिस पर पड़ती हैं उसका रोआं-रोआं मस्त हो जाता है।

फिर रूठी रानी ने जरा सम्भल कर कहा– ‘‘देखो यहां कोई राठौर तो नहीं है?’’ संयोग से जीत मालवत नाम का एक कंगाल राठौर मिला। वह डरता-डरता आया और हाथ जोड़कर बोला– ‘‘सती माता, मुझ पर दया कीजिए, मैं तो भूख से तंग होकर मारवाड़ छोड़ आया हूं और मेवाड़ में मेहनत-मजदूरी करके पेट पालता हूं। मैं चिता को आग देने के काबिल नहीं हूं।’’

उमा देई ने कहा– ‘‘ठाकुर, डरो मत, स्नान करके चिता में आग दे दो। तुम राठौर वंश के हो इसलिए तुम्हें बुलाया है।’’

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