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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


ज्ञानी– (मुस्कराकर) नमक मिर्च लगाना कोई तुमसे सीख ले। मुझे भोली पाकर बातों से उड़ा देते हो; लेकिन आज मैं न मानूंगी।

सबल– ऐसी जल्दी क्या है? मैं स्वामी जी को यही बुला लाऊंगा, खूब जी भर कर दर्शन कर लेना। वहां बहुत से आदमी जमा होगे, उनसे बातें करने का भी अवसर न मिलेगा। देखने वाले हंसी उड़ायेंगे कि पति तो साहब बना फिरता है और स्त्री साधुओं के पीछे दौड़ा करती है।

ज्ञानी– अच्छा तो कब बुला दोगे?

सबल– कल पर रखो।

(ज्ञानी चली जाती है।)

सबलसिंह– (आप-ही-आप) संतान की क्यों इतनी लालसा होती है? जिसके संतान नहीं है वह अपने को अभागा समझता है, अहर्निश इसी क्षोभ और चिंता में डूबा रहता है। यदि यह लालसा इतनी व्यापक न होती तो आज हमारा धार्मिक जीवन कितना शिथिल, कितना नीरव होता। न तीर्थयात्राओं की इतनी घूम होती, न मन्दिरों की इतनी रौनक, न देवताओं की इतनी भक्ति, न साधु-महात्माओं पर इतनी श्रद्धा, न दान और व्रत की इतनी धूम। यह सब कुछं संतान-लालसा का ही चमत्कार है। खैर कल चलूंगा, देखूं इन स्वामी जी का क्या रंग-ढंग है...अदालतों की बात सोच रहा था। यह आपेक्ष किया जाता है कि इसका निवार यों हो सकता है कि स्थायी पंच न रखे जायें। जब जरूरत हो दोनों पक्षों के लोग अपने-अपने पंचों को नियत कर दें...किसानों में भी ऐसी कमिनिया होती है, यह मुझे न मालूम था। यह निस्संदेह किसी उच्च कुल की लड़की है। किसी कारणवश इस दुरवस्था में आ फंसी है। विधाता ने इस अवस्था में रखकर उसके साथ अत्याचार किया है। उसके कोमल हाथ खेतों में कुदाल चलाने के लिए बनाये गये है, उसकी मधुर वाणी खेतों में कौवे हांकने के लिए उपयुक्त नहीं है, जिन केशों से झूमर का भार भी न सहा जाय उन पर उपले और अनाज के टोकरे रखना महान अनर्थ है, माया की विषय लीला है, भाग्य कर क्रूर रहस्य है। यह अबला है, विवश है, किसी से अपने मन की व्यथा कह नहीं सकती। अगर मुझे मालूम हो जाये कि वह इस हालत में सुखी है, मुझे सन्तोष हो जायेगा। पर यह कैसे मालूम हो। कुलवती स्त्रियां अपनी विपत्ति-कथा नहीं कहती, भीतर-ही-भीतर जलती है पर जबान से हाय नहीं करती...मैं फिर उसी उधेड़-बुन में पड़ गया। समझ में नहीं आंता मेरे चित्त की यह दशा क्यों हो रही है। जब तक मेरा मन कभी इतना चंचल नहीं हुआ था। मेरे युवाकाल के सहवासी तक मेरी अरसिकता पर आश्चर्य करते थे। अगर मेरी इस लोलपुता की जरा भी भनक उनके कान मे पड़ जाये तो मैं कहीं मुँह दिखाने लायक न रहूं। यह आग मेरे हृदय में ही जले, और चाहे हृदय जल कर राख हो जाये उसकी कराह किसी के कान में न पड़ेगी। ईश्वर की इच्छा के बिना कुछ नहीं होता। यह प्रेम-ज्योति उद्दीप्त करने में भी उसकी कोई न कोई मसलहत जरूर होगी।

[घंटी बजाता है।]

(एक नौकर– हुजूर हुकुम?

सबल– घोड़ा खींचो।

नौकर– बहुत अच्छा।

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