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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


कंचन– अच्छी बात है, मुनीम जी लिखा-पढ़ी करके रुपये दे दीजिए पूजा करने जाता हूं। (जाता है।)

मुनीम– तो तुम्हें २०० रु. चाहिए न। पहिले ५ रु. सैकड़े नज़राना लाया था। अब ५ रु. सैकड़े हो गया है।

हलधर– जैसी मरजी।

मुनीम– पहले २ रु. सैकड़े लिखाई पड़ती थी, अब ४ रु. सैकड़े गयी है।

हलधर– जैसा सरकार का हुक्म।

मुनीम– स्टाम्प के ५ रु. लगेंगे।

हलधर– सही है।

मुनीम– चपरासियों का हक २ रु. होगा।

हलधर– जो हुक्म।

मुनीम– मेरी दस्तूरी ५ रु. होती है, लेकिन तुम गरीब आदमी तुमसे ४ रु. ले लूंगा! जानते ही मुझे यहां से कोई तलब तो मिलती न बस इसी दस्तूरी का भरोसा है।

हलधर– बड़ी दया है।

मुनीम– १ रु. ठाकुर जी को चढ़ाना होगा।

हलधर– चढ़ा दीजिए। ठाकुर तो सभी के हैं।

मुनीम– और १ रु. ठकुराइन के पान का खर्च है।

हलधर– ले लीजिए। सुना है गरीबों पर बड़ी दया करती हैं।

मुनीम– कुछ पढ़े हो?

हलधर– नहीं महाराज, करिया अच्छर भैंस बराबर है।

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