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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


फत्तू– पहले सबको गिरफ्तार कराना चाहते थे, पर बाद को सबल सिंह ने मना कर दिया। दावा दायर करने की सलाह थी। पर बड़े ठाकुर तो दयावान जीव हैं, दावा भी मुल्तवी कर दिया, इधर लगान भी मुआफ कर दी। मुझसे जब चपरासी ने यह हाल कहा तो जैसे बदन में आग लग गयी। सीधे कंचनसिंह के पास गया और मुंह में जो कुछ आया कह सुनाया। सोच लिया था, दो-चार का सिर तोड़ के रख दूंगा, जो होगा देखा जायेगा। मगर बेचारे ने दबान तक नहीं खोली। जब मैंने कहा, आप बड़े धर्मात्मा की पूंछ बनते हैं, सौ-दो सौ रुपयों के लिए गरीबों को जेल में डालते हैं, उस आदमी का तो यह हाल हुआ, उसकी घरवाली का कहीं पता नहीं कहीं डूब मरी, या क्या हुआ, यह सब पाप किसके सिर पड़ेगा, खुदाताला को क्या मुंह दिखाओगे। तो बेचारे रोने लगे। लेकिन जब रुपयों की बात आयी तो उस रकम में एक पैसा भी छोड़ने की हामी नहीं भरी।

सलोनी– इतनी दौड़धूप तो कोई अपने बेटे के लिए भी न करता। भगवान इसका फल उन्हें तुम्हें देंगे।

हरदास– महाजन के कितने रुपये आते हैं?

फत्तू– कोई ढाई सौ होंगे। थोड़ी-थोड़ी मदद कर दो आज ही हलधर को छुड़ा लूं। मैं बहुत जेरबारी में पड़ गया हूं, नहीं तो तुम लोगों से न मांगता।

मंगरू– भैया, यहां रुपये कहां, जो कुछ लेई-पूंजी थी वह बेटी के गौने में खर्च हो गयी। उस पर पत्थर ने और भी चौपट कर दिया।

सलोनी– बने के साथी सब होते हैं, बिगड़े का साथी कोई नहीं होता।

मंगरू– जो चाहे समझो, पर मेरे पास कुछ नहीं है।

हरदास– अगर दस-बीस दे भी दें तो कौन जल्दी मिले जाते हैं। बरसों में मिले तो मिले। उसमें सबसे पहले अपनी जमा लेंगे, तब कहीं औरों को मिलेगा।

मगरू– भला इस दौड़धूप में तुम्हारे कितने रुपये लगे होंगे?

फत्तू– क्या जाने, मेरे पास कोई हिसाब-किताब थोड़े ही है!

मंगरू– तब भी अंदाज से?

फत्तू– कोई १२० रु. लगे होंगे।

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